खनिज नीति

खनिज नीति

खनिज नीति

भारत में खनिज संपदा के उपयोग से संबंधित नीतियाँ हमारे विकास और औद्योगीकरण नीति के विकास के साथ-साथ बदलती रही हैं।

खनन नीति निर्माण के तहत कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर विचार करना होता है।

पहला पक्ष है, राष्ट्रीय विकास और औद्योगीकरण में खनिजों की भूमिका।

यह किसी दौर में औद्योगिक विकास की नीति से संबंधित है।

1990 से पहले विश्व भर के देश चाह रहे थे कि उसके देश के खनिज का उत्खनन और उपयोग उसी देश के लोग और वहाँ की ही कंपनियों करें।

वे दूसरे देशों को उत्खनन में आने नहीं देना चाहते थे। लेकिन यह 1990 के बाद तेजी से बदलने लगा। आपको याद होगा कि वैश्वीकरण का नया दौर 1990 के दशक में शुरू हुआ था।

ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, चीन जैसे खनिज प्रचुर देश अपनी नीतियों को बदलने लगे

ताकि खनन में निजी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बढ़ावा मिले, वे नई तकनीकी और पूँजी लेकर आएँ और औद्योगिक उत्पादन की बढ़ती माँग के लिए खनिज संपदा का दोहन करें।

इसके साथ ही खनिजों का अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार और व्यापार अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा और कोई भी उद्योगपति अपनी जरूरत के खनिज वहाँ से खरीद सकता था।

वर्तमान में सरकारें अपने आपको खनन कार्य तथा खनिज भण्डार खोज से हटा रही हैं और उसे पूरी तरह निजी कंपनियों को दे रही हैं।

अब सरकारें मुख्य रूप से तीन कार्य करती हैं।

पहला, खनिज संपदा के बारे में वैज्ञानिक जानकारी एकत्र करना और बाँटना।

सरकारें अपने देश में कहाँ क्या खनिज संसाधन उपलब्ध हैं

इसकी वैज्ञानिक जानकारी इकट्ठा करती हैं और उसे सार्वजनिक करती हैं ताकि विभिन्न कंपनियों उनके उत्खनन के लिए आगे आएँ।

दूसरा, खनन उद्योग को विनियमित या रेगुलेट करना।

सरकारों का दायित्व है कि खनन कायदे कानून के तहत हों और पर्यावरण व मज़दूरों की सुरक्षा को अनदेखा न किया जाए।

सरकार कंपनियों को खनिज भण्डार खोजने और उत्खनन की अनुमति देती है और यह सुनिश्चित करती है कि कंपनियाँ उन शर्तों का पालन करें।

तीसरा, खनन से शुल्क या कर वसूल करना।

सरकार को यह सुनिश्चित करना होता है कि खनिजों से प्राप्त आय का उचित हिस्सा सरकार को शुल्क या टैक्स के रूप में मिले जिसे वह देश के विकास कार्य में लगा सके।

इसी तारतम्य में भारत में भी खनिज नीति में बदलाव होने लगा।

भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत 1991 में हुई।

1993 में सरकार ने एक नई राष्ट्रीय खनिज नीति की घोषणा की जिसमें कहा गया कि सरकार केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के लिए आरक्षित खनिज को मी अब निजी क्षेत्रों को देगी।

सरकार का कहना था कि उसके पास इतनी पूँजी नहीं है कि वह पर्याप्त मात्रा में निवेश कर पाए और न ही उसके पास इस काम के लिए तकनीकी विशेषज्ञता है।

इस कारण से देश खनिज उत्पादन में पिछड़ रहा है और खनिज की बढ़ती अन्तर्राष्ट्रीय माँग का लाभ नहीं उठा पा रहा है।

इस वजह से सरकार ने निजी व विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करने का निर्णय लिया।

1994, 1999 और 2008 में खनिज कानूनों में संशोधन किए गए ताकि निजी निवेशक और विदेशी कंपनियाँ आसानी से भारतीय खनन उद्योग में निवेश करें।

खनन के निजीकरण के कई प्रभाव पिछले 20 वर्षों में देखे गए हैं जिनका प्रभाव चिन्ताजनक है।

भारत के सकल घरेलू उत्पादन में खनन का हिस्सा 2000 में 3 प्रतिशत था जो कि 2014 में घटकर 2.3 रह गया।

इसमें जितने लोगों को रोज़गार मिला वह इन 14 वर्षों में स्थिर रहा है, यानि न आय बढ़ी है और न ही रोजगार।

दूसरी ओर यह देखा गया है कि खनन द्वारा उत्पादन बढ़ा है मगर इससे राज्य को आय कम मिल रही है।

इसका प्रमुख कारण यह रहा है कि निजी कंपनियों को बहुत कम शुल्क में उत्खनन के ठेके दिए गए।

तीसरी समस्या यह रही है कि निजी कंपनियाँ खनन के बाद खदानों को बिना किसी भरपाई के छोड़ देती हैं।

कहा जाता है कि भारत में सैंकड़ों बड़ी खदानें हैं जो अभी बन्द हैं और पर्यावरण के विनाश की कहानी को बयाँ कर रही हैं।

खनन के साथ-साथ पर्यावरण का संरक्षण कैसे हो?

निजी कंपनियाँ जो केवल मुनाफा कमाने में रुचि रखती हैं पर्यावरण संरक्षण में पैसे क्यों खर्च करेंगी, उन्हें इसके लिए कैसे बाध्य किया जाए?

इन बातों पर अभी चर्चा चल रही है।

भारत में खनिज उन्हीं इलाकों में पाई जाती है जहाँ जंगल अधिक हैं, जहाँ से नदियाँ निकलती हैं और जहाँ अधिकांशतः हमारे जनजाति समूह रहते हैं।

खनन के कारण जंगल नष्ट हो रहे हैं।

एक आकलन के अनुसार 1981 से अब तक 186000 हेक्टेयर जंगल खनन के लिए कटे हैं।

इसके अलावा खनन और खनिजों की धुलाई के लिए स्थानीय जल स्रोतों का भयंकर प्रदूषण होता है।

पर्यावरण के इस तरह से खराब होने से वहाँ रहने वाले लोगों को आजीविका खतरे में है।

कानून के अनुसार वहाँ रहने वाले जनजाति समुदाय की सहमति से ही खनन किया जा सकता है मगर अकसर इस प्रावधान को सही तरीके से अमल नहीं किया जाता है।

फलस्वरूप जनजाति समुदाय संसाधनयुक्त होने के बावजूद सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं।

इस संबंध में आपने नियमगिरि का उदाहरण राजनीतिशास्त्र के अध्याय में पढ़ा होगा।

खदानों का दोहन खदान वेत्र के बंद होने के पश्चात् के लक्ष्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

इसके तहत खदान भूनि को दोहन पूर्व की स्थिति में लाना अथवा उसे अन्य उत्पादक कार्य के लिए उपयोगी बनाना (उदाहरणतः खेती इत्यादि) प्रमुख लक्ष्य हैं।

सर्वप्रथम खदानी क्षेत्र की ऊपरी मिट्टी (Topsoil) की परत जो खनन के पश्चात पुनः वनीकरण के लिए अत्यन्त आवश्यक है वहाँ वृक्षारोपण करना होगा।

साथ ही क्षेत्र के जैव ईंधन (Biomass) को बनाए रखते हुए छोटे-छोटे क्षेत्रों मे वन लगाए जाएँ जो कि खदानी क्षेत्र की पारिस्थितिकी के पुनर्वास के लिए उपयोगी हैं।

खदानी क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव को हरी घास के सुरक्षात्मक कवच द्वारा बचाया जा सकता है।

कुल मिलाकर खनिज संपदा के उपयोग से संबंधित नीति से बढ़ते उत्पादन, स्थानीय लोगों की जरूरतों और पर्यावरण की सुरक्षा, इन सब बातों के बीच संतुलन बनाए रखना जरूरी है।

खनन प्रक्रिया क्या है?

किन-किन जगहों पर किस तरह के खनिज का कितना जमाव (निक्षेप) है।

भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग तथा उस देश/राज्य का खनन विभाग सर्वेक्षण के माध्यम से जानकारी जुटाने का काम करते हैं।

केन्द्रीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्टों के माध्यम से सरकार ऐसे खनिज निक्षेपित भूमियों की नीलामी करती है।

नीलामी की प्रक्रिया में कई कंपनियों हिस्सा लेती हैं।

प्रक्रिया के अनुसार जिसे भी ठेका (लीज) मिलता है उसे उस भूमि पर संबंधित खनिज के उत्खनन का अधिकार होता है।

कुछ महत्वपूर्ण खनिज और उनके प्रयोग

विश्व में तीन हजार से भी अधिक खनिज पाए जाते हैं।

ये सभी खनिज हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है।

भारत में खान एवं खनिज विकास विनियमन एक्ट 1957 के अनुसार खनिजों को चार वर्गों में रखा गया है –

1.परमाणु खनिज – यूरेनियम, थोरियम।

2. ऊर्जा खनिज – कोयला, खनिज तेल व प्राकृतिक गैस।

2. ऊर्जा खनिज

3. धात्विक खनिज – लौह अयस्क, बॉक्साइट, क्रोमाइट, मैंगनीज, ताँबा, सोना, चाँदी, इत्यादि।

4. गौण या अधात्विक खनिज – भवन निर्माण कार्य में आने वाले खनिज, जैसे ग्रेनाइट, हीरा, संगमरमर, चूना पत्थर, कंकड़, बालू, इमारती पत्थर।

खनिजों के गुणधर्म एवं संरचना के आधार पर खनिजों को दो वर्गों में बाँटा जाता है।

धात्विक खनिज और अधात्विक खनिज ।

धात्यिक खनिज को भी दो उपवर्गों में बाँटा जाता है।

ऐसे खनिज जिसमें लौह अंश होता है, जैसे-लौह अयस्क, मैग्नीज़, क्रोमाइट, पाइराइट, टंग्स्टन, निकिल और कोबाल्ट।

दूसरा, ऐसे खनिज जिसमें लौह अंश नहीं होता, जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, सीसा, बॉक्साइट, टिन, मैग्नीशियम।

अधात्विक खनिज में धातुएँ नहीं होती हैं, जैसे चूना पत्थर, अभ्रक, जिप्सम आदि।

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Author: educationallof

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