Harappa sabhyata
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Harappa sabhyata –
भारत की सभ्यता
सिंधु घाटी की सभ्यता एवं संस्कृति:-
भारतीय उप महाद्वीप में यह सभ्यता उत्तर-पश्चिम क्षेत्रों में विकसित हुई।
इस सभ्यता के प्रमुख स्थल के नाम पर ही इस संस्कृति को हड़प्पा संस्कृति के नाम से जाना जाता है।
इसको सिन्धु घाटी सभ्यता के नाम से भी पुकारा जाता है
क्योंकि इस सभ्यता के कुछ महत्वपूर्ण स्थलों की जहाँ खुदाई हुई वे सिंधु नदी की घाटी में स्थित है।
कांस्य युग की सभ्यताओं में हड़प्पा :-
संस्कृति सबसे पुरानी नहीं है।
इसको यहाँ प्रथम इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि यह भारत की प्रथम ज्ञात सभ्यता है,
लगता है कि वह 2500 ई.पू. के लगभग विकसित हुई थी और किसी भी अन्य तत्कालीन सभ्यता की अपेक्षा उसका विस्तार अधिक बड़े क्षेत्र में था।
इस सभ्यता के चिह्न बलुचिस्तान, सिंघ, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश में मिले हैं।
इस सभ्यता के अस्तित्व के बारे में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में पता लगा।
इसी खोज ने भारत के इतिहास के आरंभ को कम से कम एक हजार वर्ष पीछे कर दिया।
सबसे पहले इस सभ्यता के दो प्रमुख स्थल पश्चिमी पाकिस्तान के मोंटगोमरी प्रांत के हड़प्पा और सिंध के लरकाना प्रांत में मोहनजोदड़ों में मिले।
ये दोनों स्थल अब पाकिस्तान में है।
तब से विशेषकर 1947 के बाद ऐसे अनेक स्थलों का पता चला है जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है पंजाब में रोपड़, राजस्थान में कालीबंगा और गुजरात में लोथल तथा सुरकोटड़ा।
इस संस्कृति का विकास किस प्रकार हुआ इस संबंध में विद्वान एकमत नहीं है।
प्रमाणों से ज्ञात होता है कि कुछ क्षेत्रों जैसे बलूचिस्तान और राजस्थान में प्रारंभिक कृषि प्रधान समुदाय रहते थे।
इन्हीं समुदायों से ही यह सभ्यता विकसित हुई होगी।
कतिपय विद्वानों का मत है कि अन्य सभ्यताएं जैसे मैसोपोटामिया इत्यादि के प्रभाव के परिणाम स्वरुप ही इसका विकास हुआ।
हडप्पा संस्कृति के नगरः-
हड़प्पा और मोहन जोदड़ो नगर सुव्यवस्थित योजना के अनुसार बनाए गए थे और यहाँ की आबादी काफी सघन थी।
सड़के नीधी और चौड़ी थी जो एक दूसरे को समकोण बनाती हुई काटती थीं।
मोहनजोदड़ो की मुख्य सड़क 10 मीटर चौड़ी तथा 400 मीटर लंबी थी।
वहाँ के मकान सड़कों के किनारे बने हुए थे और उनके बनाने में पक्की ईटें लगाई गई थीं।
कुछ मकानों में एक से अधिक मंजिलें थीं ।
प्रत्येक मकान में कुआँ और स्नानागार थे।
मोहनजोदड़ो में जल निकासी की व्यवस्था उत्तम थी।
घरों की नालियों के द्वारा सारा गंदा पानी एक बड़ी नदी में जाकर गिरता था।
मोहनजोदड़ो में एक बड़ा तालाब मिला है।
तरणताल के चारों ओर छोटे-छोटे कमरे बने हुए थे।
पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं।
इसे सार्वजनिक स्नानागार कहते हैं।
हड़प्पा में एक गढ़ मिला है, यह एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित था और इसमें कई ऐसी इमारतें थीं जो अब देखने में सार्वजनिक मालूम होती हैं।
अधिकतर शहरों में अनाज के बड़े गोदाम थे संभवतः देहात से लाया गया अनाज इनमें इकट्ठा किया जाता था।
पुरातत्वविदों के अनुसार लोथल एक बंदरगाह थी।
यह इस बात की ओर संकेत करता है कि लोथल एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र रहा होगा जहाँ विदेशी नावें भी आती होंगी।
( Harappa sabhyata )
लोगों का जीवन : –
हड़प्पा संस्कृति के लोगों के व्यवसायों के विषय में हमें ठीक-ठीक कुछ भी पता नहीं है।
अधिकांश जनता खेती करती थी और वह शहर के परकोटों के बाहर रहती थी।
वे लोग गेहूँ, जौ और मटर की खेती करते थे कपास की भी खेती की जाती थी और साधारणतया जनता उससे बने कपड़े पहनती थी।
भोजन के लिए संभवतः मछलियां भी पकड़ी जाती थी।
इस समय बैल, बकरियाँ, भैंसे, हाथी और घोड़े पाले जाते थे किन्तु ऐसा लगता है कि वहाँ के निवासी घोड़े का उपयोग अधिक नहीं करते थे।
हड़प्पा में मिले मिट्टी के बर्तन चाक पर बने हुए थे।
मिट्टी के बर्तन के कुछ अच्छे नमूने मिले हैं इनसे हड़प्पा के कुम्हारों की उच्च कोटि की कलात्मक उपलब्धियाँ प्रकट होती है।
रुप और आकार की दृष्टि से इन बर्तनों की विविधता आश्चर्यजनक है यहाँ बहुत बड़े घड़े मिले है जिनकी गर्दन पतली है।
लाल रंग के बर्तनी पर काले रंग की चित्रकारी की गई है हड़प्पा के मिट्टी के बर्तनों की कुछ विशेषताएँ हैं।
इन पर बनी चित्रकारी सरल नहीं है।
बहुत से. वृत त्रिभुज, वृक्ष और बेलों का उपयोग करके अनेक प्रकार के नमूने बनाए गए है।
मिट्टी के बर्तनों पर जो चित्रण किए गए है उनसे चित्रकारों का कौशल स्पष्ट होता है ।
हड़प्पा संस्कृति के कई स्थलों पर मिट्टी के अनेक प्रकार के खिलौने मिले हैं।
इनमें असंख्य मिट्टी के गाड़ियाँ मिली हैं, जिनमें पहिए लगे हुए है और जानवर जोते हुए है।
बहुत सी चिड़िया हैं जिनकी टांगे डंडे जैसी लंबी है।
कुछ मनुष्यों की मूर्तियाँ ऐसी है जिनकी भुजाएँ घूम सकती है।
मिट्टी के कुछ ऐसे सांड मिले है जो सिर हिला सकते हैं।
लोग औजारों और बर्तनों के लिए धातुओं का प्रयोग करते थे।
वे विविध रुपों और आकारों के मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे जिन्हें कुम्हार के चाक पर बनाया जाता था।
मोहनजोदड़ो में नर्तकी की कांसे की बनी जो मूर्ति मिली है
वह उनके कुशल कारीगर होने का आश्चर्यजनक उदाहरण है
पुरातत्वविदों को ऐसी सैकड़ों मुहरे मिली है जिन पर सांड, गैंडा, चीता और हाथियों की सुंदर आकृतियाँ खुदी हैं।
हड़प्पा-संस्कृति की विभिन्न वस्तुएँ जैसे माला के दाने एक पिन पर बना स्वर्णिम बंदर और मुहरें मैसोपोटामिया में मिली हैं।
एक शहर में हड़प्पा की मुहरें बड़ी संख्या में मिली हैं।
ये चीजें सिंधु घाटी की सभ्यता तथा मैसोपोटामिया के बीच सीधे व्यापार की ओर संकेत करती हैं।
कौन-सी वस्तुओं का व्यापार होता था।
यातायात की सही-सही क्या व्यवस्था थी यह बतलाने के लिए हमारे लिए हमारे पास कोई लिखित प्रमाण नहीं है।
स्थल मार्ग की कठिनाईयों से बचने के व्यापार समुद्र के रास्ते होता था।
व्यापारी मिट्टी के बर्तन अनाज सूती कपड़े मसाले पत्थर के बने माला के दाने मोती और सुरमा भारत से ले जाते थे और धातु के सामान वहाँ से भारत ले आते थे।
सिंधु घाटी के लोगों की एक कुशल सरकार थी मगर वर्तमान जानकारी के आधार पर हम उसके बारे में कुछ भी निश्चित रुप से नहीं कह सकते।
निश्चित रूप से नहीं कह सकते।
वहाँ कोई बड़े महल नहीं मिले हैं इसलिए कुछ विद्वानों का मत है
कि इन नगरों में राजा शासन नहीं चलाते थे बल्कि कुछ महत्वपूर्ण नागरिकों का समूह शासन चलाता था।
इन लोगों के धर्म के बारे में भी कोई विशेष जानकारी नहीं है।
बहुत सीमुिहरों पर कूबड़ वाले सांड की आकृति बनी हुई है।
संभवत: वे लोग इसे पवित्र समझते थे।
कुछ मुहरों पर एक देवता की आकृति बनी है।
इसे हिंदू देवता शिक्का प्रारंभिक रुप समझा गया है मनुष्यों की छोटी आकृतियाँ तथा देवी की आकृतियाँ मिली हैं।
विद्वानों का विश्वास हैं कि राजाओं तथा मातृदेवी की पूजा की जाती थी।
मोहन जोदड़ों का महान स्नानागार शायद धार्मिक स्नान का स्थान रहा हो।
शवों को आग में जलाया और जमीन में दफनाया भी जाता था।
हड़प्पा में जो मुहरें मिली हैं वे वहाँ की संस्कृति के विशिष्ट उत्पादन है।
इनमें से कुछ चिकनी मिटटी की चौकोर टिकिया हैं।
वे एक ओर उभरी हुई है और दूसरी ओर उन पर खुदाई की गई हैं काटने के बाद उनको चिकना किया जाता था।
उन पर सांड, गैंडा, चीता, हाथी और मगर जैसे जानवरों की आकृतियाँ बड़ी स्पष्ट और सुंदर बनी हुई हैं।
कुछ मुहरों पर अभिलेख भी हैं। जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
जानवरों की आकृतियाँ के सूक्ष्म अंगो को जिस कौशल से उनमें दिखलाया गया है उससे कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है।
ये मुहरें किस काम में लाई जाती थीं इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता।
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हड़प्पा की संस्कृति का अंत :-
लगभग 1500 ई.पू. में हड़प्पा की संस्कृति का अंत हो गया। यह क्यों और कैसे हुआ यह मालूम नहीं है।
हड़प्पा की संस्कृति के विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराए गए कारणों में बाढ़ के कारण क्रमिक पतन तथा एक नए जनगण आर्यों का आगमन है।
विद्वानों के बीच इस प्रश्न पर कोई सहमति नहीं है।
भारत के बहुत से भागों में काँस्य युग उत्तर पाषाण कालीन और ताम्र-पाषाण युग के उदय के पश्चात आया।
इन संस्कृतियों के बहुत से स्थल राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र एवं पूर्वी भारत में पाए गएँ है।
इनमें से अधिकांश संस्कृतियाँ हड़प्पा की संस्कृति की अपेक्षा ये बहुत कम विकसित थीं।
इन संस्कृतियों में न तो नगर थे और न ही लिपि-प्रणालियाँ।
लोहे के प्रयोग ने जिसका आरंभ भारत में लगभग 1000 ई. पू. हुआ,
लोगों के जीवन में बहुत परिवर्तन किए इससे भारतीय सभ्यता के विकास में सहायता मिली।
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