
न्यूटन का कणिका सिद्धांत (Newton’s Corpuscular Theory)
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न्यूटन का कणिका सिद्धांत –
सन् 1676 में सर आइजक न्यूटन ( sir lsaac Newton ) ने प्रकाश – संचरण के सम्बन्ध में कणिका सिद्धांंत का प्रतिपादन किया था , जिसके अनुसार –
१. प्रत्येक प्रकाश स्त्रोत से असंख्य सूक्ष्म और हल्के ( द्रव्यमान लगभग शून्य ) कम निकलते रहते हैं। इन कणों को कणिकाएं (corpuscles) कहते हैं।
२. ये कणिकाएं समांगी (Homogeneous) माध्यम में सरल रेखा में निश्चित वेग से चलती हैं , माध्यम बदलने से इन कणिकाओं का वेग बदल जाता है।
३. विभिन्न रंगों का बोध कणिकाओं के विभिन्न आकार के कारण होता हैं।
४. हमें प्रकाश का आभास कणिकाओं के रेटिना से टकराकर रेटिना को ऊर्जा संप्रेषण के कारण होता है ।
न्यूटन ने कणिका सिद्धांत के आधार पर प्रकाश सम्बन्धी
विभिन्न घटनाओं की व्याख्या –
1. प्रकाश-पुंज की ऊर्जा –
कणिकाएं तीव्र वेग से चलती हैं।
अतः उनमें गतिज ऊर्जा होती है।
किसी प्रकाश पुंज की ऊर्जा इन्हीं कणिकाओं की गतिज ऊर्जा होती है।
2. प्रकाश का सीधी रेखा में गमन –
न्यूटन के गति के प्रथम नियमानुसार , जो वस्तु गतिशील है वह उसी दिशा में उसी वेग से गतिशील रहेगी , जब तक कि उस पर कोई बाह्य बल नहीं लगाया जाय।
चूँकि कणिकाओं का द्रव्यमान नगण्य होता है।
अतः उन पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
अतः कणिकाएं सरल रेखा में गमन करती हैं।
3.प्रकाश का परावर्तन –
इसकी व्याख्या करने के लिए न्यूटन ने यह माना कि जब कोई कणिका परावर्ती पृष्ठ के समीप पहुँचती है तो उस पर पृष्ठ के अभिलम्बवत् प्रतिकर्षण बल कार्य करता है।
जब कणिका परावर्तक पृष्ठ के प्रतिकर्षण क्षेत्र में पहुँचती है तो उसके वेग को पृष्ठ के अभिलम्बवत् व समान्तर घटकों में वियोजित किया जा सकता है।
प्रतिकर्षण बल का समान्तर घटक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
ज्यों ज्यों कणिका परावर्ती पृष्ठ के पास पहुँचती जाती है प्रतिकर्षण बल के कारण अभिलम्ब घटक का मान कम होने लगता है तथा कणिका अभिलम्ब से दूर हटकर चलने लगती है।
जैसे ही कणिका परावर्ती पृष्ठ को स्पर्श करती है अभिलम्ब घटक का मान शून्य हो जाता है।
चूँकि कणिका पर प्रतिकर्षण बल अब भी लग रहा होता है , अभिलम्ब घटक की दिशा उलट जाती है।
अतः अब कणिका अभिलम्ब की ओर झुककर चलने लगती है।
ज्यों ज्यों कणिका परावर्ती पृष्ठ से दूर हटती जाती है अभिलम्ब घटक का मान बढ़ने लगता है।
प्रतिकर्षण क्षेत्र की ऊपरी सीमा पर अभिलम्ब घटक का मान प्रतिकर्षण क्षेत्र में प्रवेश करते समय के मान के बराबर हो जाता है।
अतः प्रतिकर्षण क्षेत्र के बाहर कणिका पुनः उसी वेग से सीधी रेखा में चलने लगती है।
चित्र में PQ परावर्तक पृष्ठ तथा PQP’Q’ प्रतिकर्षण क्षेत्र है। AB आपतित किरण , CD परावर्तित किरण , i आपतन कोण , r परिवर्तन कोण तथा v कणिका का वेग है।
बिन्दु B पर वेग v का अभिलम्ब घटक v cos i तथा समान्तर घटक v sin i है , जबकि बिन्दु C पर अभिलम्ब घटक v cos r तथा समान्तर घटक v sin i है।
बिन्दु B और C पर अभिलम्ब घटक तथा समान्तर घटक परस्पर बराबर हैं।
अतः v cos i = v cos rतथा v sin i = v sin rचूँकि i = rअर्थात् आपतन कोण परावर्तन कोण के बराबर होता है।
चित्र से स्पष्ट है कि आपतित किरण , परावर्तित किरण तथा अभिलम्ब कागज के तल में हैं।
ये ही परावर्तन के नियम हैं।
4.प्रकाश का अपवर्तन –
1. जब प्रकाश सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करता है –
इसकी व्याख्या करने के लिए न्यूटन ने यह माना कि अपवर्तक पृष्ठ के अभिलम्बवत् प्रतिकर्षण बल का मान इतना कम होता है कि वह कणिका के वेग के अभिलम्ब घटक को शून्य नहीं कर पाता।
जब कोई कणिका सघन माध्यम से अपवर्तक पृष्ठ के प्रतिकर्षण क्षेत्र में प्रवेश करती है तो उसके वेग के समान्तर घटक पर प्रतिकर्षण बल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
ज्यों ज्यों कणिका अपवर्तक पृष्ठ के समीप पहुँचती जाती है उसके वेग के अभिलम्ब घटक का मान कम होने लगता है।
अतः कणिका अभिलम्ब से दूर हटकर चलने लगती है। अपवर्तक पृष्ठ पर अभिलम्ब घटक का मान शून्य नहीं हो पाता।
अतः कणिका दूसरे माध्यम (विरल माध्यम) में प्रवेश कर जाती है।
जब कणिका प्रतिकर्षण क्षेत्र की सीमा पर पहुँचती है तो उसके वेग के समान्तर घटक का मान उतना ही बना रहता है , किन्तु अभिलम्ब घटक का मान प्रतिकर्षण सीमा में प्रवेश करते समय के मान से कम होता है।
अतः प्रतिकर्षण क्षेत्र के बाहर दूसरे माध्यम में कणिका भिन्न वेग से चलने लगती है।
चित्र में PQ अपवर्तक पृष्ठ तथा P’Q’P”Q” प्रतिकर्षण क्षेत्र है।
AB आपतित किरण , CD अपवर्तित किरण , i आपतन कोण तथा r अपवर्तन कोण है।
पहले माध्यम में कणिका का वेग v₁ तथा दूसरे माध्यम में v₂ है।
बिन्दु B पर कणिका के वेग का समान्तर घटक v₁ sin i तथा अभिलम्ब घटक v₁ cos i जबकि बिन्दु C पर समान्तर घटक v₂ sin r तथा अभिलम्ब घटक v₂ cos r है।
बिन्दु B और C पर समान्तर घटक समान हैं।
अतः v₁ sin i = v₂ sin r
sin i / sin r = v₁ / v₂ = नियतांक
यही स्नेल का नियम है।
चित्र से स्पष्ट है कि आपतित किरण , अपवर्तित किरण और अभिलम्ब कागज के तल में है।
ये ही अपवर्तन के नियत हैं।
पुनः चित्र से स्पष्ट है कि r>i या sin r> sin I अतः v₁ >v₂.
इस प्रकार , सघन माध्यम में प्रकाश का वेग विरल माध्यम में प्रकाश के वेग अधिक होता है।
यह प्रायोगिक निष्कर्ष के विपरीत है।
2. जब प्रकाश विरल माध्यम से सघन माध्यम में प्रवेश करता है –
इसकी व्याख्या करने के लिए न्यूटन ने यह माना कि जब कणिका अपवर्तक पृष्ठ के समीप पहुँचती है तो उस पृष्ठ के अभिलम्बवत् आकर्षण बल कार्य करता है।
जब कोई कणिका अपवर्तक पृष्ठ के आकर्षक क्षेत्र में प्रवेश करती है तो उसके वेग के समान्तर घटक पर आकर्षण बल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
ज्यों ज्यों कणिका अपवर्तक पृष्ठ के समीप पहुँचती जाती है , वेग के अभिलम्ब घटक का मान बढ़ने लगता है।
अतः कणिका अभिलम्ब की ओर झुककर चलने लगती है।
जब कणिका आकर्षण क्षेत्र की दूसरी सीमा पर पहुँचती है तो समान्तर घटक का मान उतना ही बना रहता है किन्तु अभिलम्ब घटक का मान पहले की तुलना में अधिक होता है।
अतः आकर्षण क्षेत्र के बाहर कणिका भिन्न वेग से चलने लगती है।
चित्र से स्पष्ट है कि v₁ sin i = v₂ sin r
या sin i /sin r = v₂ / v₁ = नियतांक
यही स्नेल का नियम है।
चूँकि i > r
या sin i = sin r
या v₂ > v₁
अतः सघन माध्यम में प्रकाश का वेग विरल माध्यम में प्रकाश के वेग से अधिक होता है।
यह प्रायोगिक निष्कर्ष के विपरीत है।
5. प्रकाश का वर्ण-विक्षेपण –
भिन्न भिन्न रंग की कणिकाओं का आकार भिन्न भिन्न होता है।
अतः प्रिज्म में से गुजरने पर विभिन्न रंगों की कणिकाओं का वेग भिन्न भिन्न होता है।
फलस्वरूप प्रकाश का वर्ण-विक्षेपण हो जाता है।
न्यूटन का कणिका सिद्धांत की अमान्यता के कारण –
इस सिद्धांत की सहायता से प्रकाश के व्यतिकरण , विवर्तन ,ध्रुवण आदि घटनाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती।
इस सिद्धांत के अनुसार सघन माध्यम में प्रकाश का वेग विरल माध्यम में प्रकाश के वेग से अधिक होता है जो कि प्रयोगों से प्राप्त परिणाम के सर्वथा विपरीत है।
प्रकाश स्त्रोत से निरन्तर असंख्य कणिकाएँ निकलती रहती हैं।
अतः प्रकाश स्त्रोत का द्रव्यमान कम हो जाना चाहिए , किन्तु यथार्थ में ऐसा नहीं होता।
इस सिद्धांत के अनुसार प्रकाश के वेग को प्रकाश स्त्रोत के ताप पर निर्भर होना चाहिए , किन्तु वास्तव में प्रकाश का वेग प्रकाश स्त्रोत के ताप से स्वतंत्र होता है।
प्रकाश के परावर्तन एवं सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रकाश के अपवर्तन की व्याख्या करने के लिए यह माना गया कि पृष्ठ के अभिलम्बवत् प्रतिकर्षण बल कार्य करता है ,
जबकि विरल माध्यम से सघन माध्यम में अपवर्तन की व्याख्या करने के लिए यह माना गया कि पृष्ठ के अभिलम्बवत् आकर्षण बल कार्य करता है।
ये परिकल्पनाएँ परस्पर विपरीत है।
इनका कोई सैद्धांतिक आधार प्रतीत नहीं होता।
उपयुक्त कारणों से न्यूटन के कणिका सिद्धांत को अमान्य कर दिया गया।
हाइगन का तरंग सिद्धांत (Huygen’s wave theory )
सन् 1678 में हॉलैण्ड के वैज्ञानिक क्रिश्चियन हाइगन (Christian huygen ) ने प्रकाश संचरण से सम्बन्धित तरंग सिध्दांत का प्रतिपादन किया था ,
जो निम्नलिखित हैं –
(1). प्रकाश तरंगों के रूप में चलता है।
(2). ये तरंगें सभी दिशाओं में अत्यधिक वेग से चलती हैं
तथा जब ये किसी वस्तु से परावर्तित होकर हमारी आँखों पर पहुँचती हैं तो हमें वस्तु की उपस्थिति का आभास होता है।
(3). सम्पूर्ण ब्रम्हांड में काल्पनिक माध्यम ईथर व्याप्त है।
इसी माध्यम में से होकर तरंगें चलती हैं।
(4). ईथर भारहीन तथा समांगी होता है।
इसका घनत्व बहुत ही कम तथा प्रत्यास्थता बहुत अधिक होती है।
(5). विभिन्न रंगों का आभास तरंगदैर्घ्य में अन्तर के कारण होता हैं।
(6). प्रारम्भ में प्रकाश तरंग को अनुदैर्ध्य माना गया था , किन्तु बाद में ध्रुवण की व्याख्या करने के लिए इसे अनुप्रस्थ माना गया।