श्री धराचार्य विधि या सुत्र विधि से वर्ग समीकरण का हल
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श्री धराचार्य विधि
भारतीय गणितज्ञ श्रीधराचार्य
श्री धराचार्य एक चर वाले द्विघातीय (वर्ग) समीकरण को हल करने वाले प्रथम भारतीय गणितज्ञ थे। इन्होंने अंकगणित, ज्यामिति, वर्गमूल तथा घनमूल इत्यादि क्षेत्रों में भी कार्य किया था।
बह्मागुप्त (628 ई.) एवं भास्कराचार्य(1150 ई.) के मध्य मे श्रीधराचार्य (750ई.) ही सर्वमान्य गणितज्ञ थे।
इसलिए कहा गया है कि उत्तर में हिमालय से दक्षिण के मलयपर्वत तक और पूर्व तथा पश्चिम समुद्र की सीमा तक श्रीधराचार्य की तुलना का कोई गणितज्ञ नहीं रहा है।
इन्होंने वर्ग समीकरण के लिये निम्न सुत्र दिये :-
चतुराहत वर्ग समै रूपैः पक्ष द्वयं गुणयेत्।
अव्यक्त वर्ग रूपैर्युक्तौ पक्षौततो मूलम् ।।
श्री धराचार्य विधि या सुत्र विधि से वर्ग समीकरण का हल :-
माना कि वर्ग समीकरण का मानक रूप
ax²+bx+c=0,a≠0
⇒ax²+bx=-c
दोनों पक्षो को 4a से गुणा करने पर
⇒4a²x²+4abx = -4ac
⇒(2ax)²+2.2ax.b = -4ac
दोनों पक्षों में b² जोडने पर
⇒(2ax)²+2.2ax.b +b² = b² -4ac
⇒(2ax+b)² = b² -4ac
वर्ग लेने पर
⇒ 2ax+b =+-√(b²-4ac)
⇒2ax = -b +-√(b²-4ac)
अतः x = {-b +-√(b²-4ac) }/2a
यह सूत्र वर्ग सूत्र कहलाता है। इस सूत्र को श्रीधराचार्य का सूत्र भी कहते हैं।
यदि वर्ग समीकरण के दो मूल α,β हो
α={-b+√(b²-4ac)}/2a
β={-b-√(b²-4ac)}/2a
भास्कराचार्य |
भास्कराचार्य (जन्म- 1114 ई. मृत्यु- 1179 ई.) प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है।भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों ने अनेक विदेशी विद्वानों को भी शोध का रास्ता दिखाया है।
जन्म एवं परिवार :
भास्कराचार्य का जन्म 1114 ई. को विज्जडविड नामक गाँव में हुआ था जो आधुनिक पाटन के समीप था।
भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वराचार्य था तथा वे भी गणित के एक महान विद्वान थे।
चूँकि पिता एक उच्च कोटि के गणितज्ञ थे अतः उनके सम्पर्क में रहने के कारण भास्कराचार्य की अभिरुचि भी इस विषय के अध्ययन की ओर जागृत हुई।
उन्हें गणित की शिक्षा मुख्य रूप से अपने पिता से ही प्राप्त हुई।
धीरे-धीरे गणित का ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में उनकी अभिरुचि काफ़ी बढ़ती गई तथा इस विषय पर उन्होंने काफ़ी अधिक अध्ययन एवं शोध कार्य किया।
भास्कराचार्य के पुत्र लक्ष्मीधर भी गणित एवं खगोल शास्त्र के महान विद्वान हुए।
फिर लक्ष्मीधर के पुत्र गंगदेव भी अपने समय के एक महान विद्वान माने जाते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भास्कराचार्य के पिता महेश्वराचार्य से प्रारम्भ होकर भास्कराचार्य के पोते गंगदेव तक उनकी चार पीढ़ियों ने विज्ञान की सेवा में अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
परन्तु जितनी प्रसिद्धि भास्कराचार्य को मिली उतनी अन्य लोगों को नहीं मिल पाई।
रचनाएँ :
भास्कराचार्य की अवस्था मात्र बत्तीस वर्ष की थी तो उन्होंने अपने प्रथम ग्रन्थ की रचना की। उनकी इस कृति का नाम सिद्धान्त शिरोमणि था।
उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना चार खंडों में की थी। इन चार खण्डों के नाम हैं- \’पारी गणित\’, बीज गणित\’, \’गणिताध्याय\’ तथा \’गोलाध्याय\’। पारी गणित नामक खंड में संख्या प्रणाली, शून्य, भिन्न, त्रैशशिक तथा क्षेत्रमिति इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
जबकि बीज गणित नामक खंड में धनात्मक तथा ऋणात्मक राशियों की चर्चा की गई है तथा इसमें बताया गया है कि धनात्मक तथा ऋणात्मक दोनों प्रकार की संख्याओं के वर्ग का मान धनात्मक ही होता है।
द्वितीय ग्रंथ :
भास्कराचार्य द्वारा एक अन्य प्रमुख ग्रन्थ की रचना की गई जिसका नाम है लीलावती। कहा जाता है कि इस ग्रन्थ का नामकरण उन्होंने अपनी लाडली पुत्री लीलावती के नाम पर किया था।
इस ग्रन्थ में गणित और खगोल विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर प्रकाश डाला गया था।
सन् 1163 ई. में उन्होंने करण कुतूहल नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में भी मुख्यतः खगोल विज्ञान सम्बन्धी विषयों की चर्चा की गई है।
इस ग्रन्थ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढक लेता है तो सूर्य ग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढक लेती है तो चन्द्र ग्रहण होता है।
भाषा :
भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है।
भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों ने अनेक विदेशी विद्वानों को भी शोध का रास्ता दिखाया है।
कई शताब्दि के बाद केपलर तथा न्यूटन जैसे यूरोपीय वैज्ञानिकों ने जो सिद्धान्त प्रस्तावित किए उन पर भास्कराचार्य द्वारा प्रस्तावित सिद्धान्तों की स्पष्ट छाप मालूम पड़ती है।
ऐसा लगता है जैसे अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने के पूर्व उन्होंने अवश्य ही भास्कराचार्य के सिद्धान्तों का अध्ययन किया होगा।