भारतीय संविधान (Indian Constitution)
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भारतीय संविधान –
संविधान जीवन का वह मार्ग है, जो राज्य अपने लिए चुनता है।
अंग्रेजी शब्द, ‘Constitution’ का हिन्दी समानार्थी शब्द संविधान है
जिस प्रकार साधारण बोलचाल की भाषा में कन्स्ट्रक्शन (Construction) से अभिप्राय ढांचे या गठन से होता है
उसी प्रकार भारतीय संविधान का अभिप्राय भी भारतीय राज्य के संघीय ढांचे, उसकी बनावट एवं संगठन से है।
प्रत्येक ‘राज्य का शासन कार्य संविधान के अनुसार होता है।
हमारे भारतीय संघ का भी अपना संविधान है जिससे शासन कार्य सुचारु रुप से चलाया जा सके।
राज्य के चार अनिवार्य तत्व होते हैं जिनमें से एक महत्वपूर्ण तत्व सरकार है
जिसके द्वारा राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है।
सरकार का गठन किस प्रकार किया जावे, उसके विभिन्न अंगो की शक्ति, कार्य और परस्पर संबंध क्या हों ?
इसके निश्चित नियम होते हैं जो लिखित व अलिखित होते हैं।
कुछ नियम संसद द्वारा बनाये जाते हैं, कुछ नियम हमारी भारतीय परम्पराओं व प्रथाओं पर आधारित हैं,
ये नियम व कानून मिलकर भारतीय संविधान बनाते है।
संविधान हमारे शासन की कार्यप्रणाली, सरकार के अंग, राज्य के कार्य क्षेत्र, स्थानीय स्वशासन के स्वरुप का निर्धारण करती है।
भारतीय संविधान के द्वारा राज्य के नागरिकों के अधिकार एवं कर्तव्य निश्चित किये गये हैं।
राज्य व नागरिकों के पास्परिक संबंधों की विवेचना भी हमारा संविधान करता हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय संविधान वस्तुतः उन सभी नियमों, कानूनों, परम्पराओं और प्रथाओं का संग्रह है।
शासन के स्वरुप, उसके अंगों के पारस्परिक संबंधों, सरकार के अंगों की शक्तियों तथा शासन व राज्य एवं नागरिकों के संबंधों को निश्चित करता है।
भारतीय संविधान के संबंध में जवाहरलाल नेहरु जी का मत है-
“भारतीय संविधान शब्दों के रुप में राष्ट्र का स्वप्न, और आकांक्षा है।
यह एक निश्चय और एक निश्चय से भी बढ़कर है, यह एक घोषणा है,
यह एक शपथ व प्रतिज्ञा हैं और मुझे आशा है कि यह हम सब के लिए एक समर्पण है।”
यहाँ भीमराव अम्बेडकर का कथन भी उल्लेखनीय है वे लिखते हैं –
“मैं महसूस करता हूँ कि भारतीय संविधान व्यवहारिक है इसमें परिवर्तन की क्षमता है।
इसमें शांतिकाल व युद्धकाल में देश की एकता को बनाये रखने का सामर्थ्य है।
वास्तव में मैं यह कहना चाहूंगा कि यदि भारतीय संविधान के अन्तर्गत स्थिति खराब होती है
तो इसका कारण यह नहीं कि हमारा संविधान खराब है वरन् हमें यह कहना होगा कि मनुष्य ही खराब है।”
उपरोक्त कथन का अर्थ यही है कि भारतीय संविधान हमारे शासन का आधार बिंदु है
उसमें जनता के स्वप्न उसकी भावनाएं , उसके आदर्श व आंकाक्षाओं की अभिव्यक्ति है।
संविधान की आवश्यकताः-
(1) भारतीय संविधान स्थायी नियम है जिनके आधार पर संसद नये कानून बनाती है तथा सरकार कार्य करती है
यदि संविधान न हो तो अराजकता की स्थिति आ जायेगी।
नागरिकों के अधिकार सुरक्षित नहीं रहेंगे।
शासक वर्ग अपनी मनमानी करेगा।
(2) नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए एवं नागरिकों को अपने अधिकारों व कर्तव्यों का ज्ञान कराने के लिए संविधान आवश्यक है।
संविधान के आधार पर ही सरकार व अन्य संस्थाओं का गठन किया जाता है।
(3) संविधान का कार्य न केवल शासन के विभिन्न अंगों का संगठन, रचना व कार्य विभाजन को निश्चित करना हैं
वरन् यह भी निर्धारण करना है कि राज्य के उद्देश्य क्या होंगे ?
(4) संविधान शासन के सामान्य सिद्धांतों को भी निर्धारित करता है।
इसी कारण भारतीय संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को जोड़ा गया है, ये तत्व राज्य को बताते है कि वह अपनी नीतियों का निर्माण किस प्रकार करें।
राज्य एक स्वाभाविक संघ है जो कुछ विशिष्ट उद्देशयों के पूर्ति के लिए कार्य करता है।
राज्य के व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए संविधान का होना अत्यन्त आवश्यक है
क्योंकि बिना नीतियों व नियमों के कार्य नहीं किया जा सकता।
(5) वर्तमान युग लोकतांत्रिक युग है।
लोकतंत्र में शासन की प्रत्येक, शक्ति, अधिकार व कर्तव्य आदि स्पष्ट होना चाहिए तभी सभी नागरिक व सरकार के अंग, अपने कार्य एवं अधिकारों को ठीक ढंग से समझ सकेंगें
तथा उनके अनुरुप कार्य कर सकेंगे।
अतः प्रत्येक राज्य, चाहे उसकी शासन व्यवस्था किसी भी प्रकार की हो उसे संविधान की आवश्यकता होती है।
संविधान की आवश्यकता के प्रमुख कारण है
1. यह सरकार की शक्तियों पर अंकुश लगाता है।
2. व्यक्ति के हित में सरकार पर नियंत्रण रखता है।
3. भावी व वर्तमान पीढ़ी को मनमानी नहीं करने देता।
अतः राज्य कहलाने के अधिकार रखने वाले हर राष्ट्र के लिये संविधान प्रकाश स्तंभ हैं।
भारतीय संविधान ऐसे सिद्धांतों व कानूनों का संग्रह है जो सरकार व नागरिकों के संबंध निश्चित करता है
और उसके अनुसार भारतीय शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने का निर्देशन व मार्गदर्शन देता है।
बिना भारतीय संविधान के हमारे संघीय समाजवादी लोकतंत्र की कल्पना कभी साकार नहीं की जा सकती है।
हमारे संविधान के मूल सिद्धांत ही भारतीय संविधान के स्वरूप का निर्धारण करते हैं।
भारतीय संविधान का निर्माण
भारत का स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन १८५७ से १५ अगस्त १९४७ तक चलता रहा।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रीय आंदोलन की तीव्रता को देखकर १६ मार्च १९४६ को इंग्लैंड की प्रधानमंत्री एटली ने यह घोषणा की कि केबीनेट मिशन भारत नहीं हो सकी
भारत के संविधान निर्माण-
- 1. संविधान सभा का गठन
- 2. संविधान सभा की बैठक तथा प्रस्ताव
- 3. प्रारूप समिति निर्माण
- 4. संविधान का प्रारूप
अतः मिशन ने १६ मई १९४६ को कुछ प्रस्ताव रखे इनमें से एक प्रस्ताव संविधान निर्माण एवं संविधान निर्मात्री सभा के गठन से संबंधित था।
केबीनेट मिशन द्वारा दिये गये सुझाव के अनुसार संविधान सभा का निर्माण किया गया।
जायेगा। वह २४ मार्च १९४६ को भारत पहुंचा ।
केबीनेट मिशन ने राजनैतिक दलों के नेताओं वैधानिक प्रश्नों पर आम राय से बातचीत की,
किंतु संविधान सभा ने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४६ को प्रारंभ किया।
१९४६ की केबीनेट मिशन योजनानुसार एक ३८९ सदस्यीय संविधान सभा का निर्माण हुआ
किंतु पाकिस्तान बनने से इसमें ३०८ सदस्य रह गये।
९ दिसम्बर १९४६ को डॉ. सच्चिानंद की अध्यक्षता में इसकी पहली बैठक हुई, बाद में ११ दिसम्बर १९४६ को राजेन्द्र प्रसाद इसके स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
३ दिसम्बर १९४६ को पं. जवाहरलाल नेहरु ने इसमें उद्देश्य प्रस्ताव रखा जो सभा द्वारा २२ जनवरी १९४७ को स्वीकार किया गया।
२९ अगस्त १९४७ को डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में एक प्रारुप समिति बनाई गई।
जिसका कार्य संविधान का प्रारुप तैयार करना था।
इसके सदस्य थे सर अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर, अन् गोपाला स्वामी अयंगार, मोहम्मद सादुल्ला. के एम मुंशी, बी.एल. मित्तर और पी.डी.खेतान।
प्रारुप समिति ने संविधान का एक मसविदा तैयार किया जिसमें ३९५ अनुच्छेद और 8 परिशिष्ट थे ।
५ जनवरी १९४८ को यह मसविदा संविधान सभा में प्रस्तुत किया गया।
संविधान सभा ने २ वर्ष ११ माह १८ दिन तक कार्य करके २६ जनवरी १९४९ को ३९५ अनुच्छेदों और 8 परिशिष्टों का भारत का संविधान स्वीकार किया
और लागू किया गया।
२६ जनवरी इस कारण ऐतिहासिक है कि इस तिथि को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की मुक्ति की घोषणा की थी।
26 जनवरी को इसे लागू करने का कारण यह था कि सन् 1930 में देश प्रतिवर्ष 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता चला आ रहा था।
इसकी स्मृति में ही हम भारतवासी प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Framing of Indian Constitution)
प्रत्येक संविधान के प्रारंभ में सामान्यता एक प्रस्तावना होती है
जिसके द्वारा संविधान के मूल उद्देश्यों को व लक्ष्यों को स्पष्ट किया जाता है।
भारतीय संविधान के प्रारंभ में ही, एक प्रस्तावना है और यह प्रस्तावना संविधान में जुड़ा हुआ एक श्रेष्ठ अंलकार है।
यद्यपि प्रस्तावना को संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं है
परंतु यह भारत के प्रजातंत्रीय गणतंत्रात्मक राज्य का एक संक्षिप्त लेकिन सारपूर्ण घोषणा पत्र है।
अतः इसका महत्व और मूल्य संविधान से कम नहीं आंका जाना चाहिए।
संविधान की उक्त प्रस्तावना संविधान संशोधन ४२ के द्वारा समाजवाद तथा धर्म निरपेक्ष शब्दों को और जोड़ दिया गया हैं
और इस प्रकार से लिया गया है कि
“सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य।”
प्रस्तावना में दूसरा संशोधन यह किया गया है कि राष्ट्र की एकता शब्द के साथ अखण्डता शब्द जोड दिया गया है।
संविधान के ४४ संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवाद तथा धर्मनिरपेक्ष शब्दों को रखा गया है
लेकिन इसके क्रम में परिवर्तन कर दिया गया है।
क्रम परिवर्तन के पश्चात प्रस्तावना इस प्रकार निर्देशित हुई है- ‘सम्पूर्ण प्रभूत्व संपन्न लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य।’
सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्ष समाजवाद का अर्थ :-
सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न का अर्थ है भारत पूरी तरह से एक स्वतंत्र गणराज्य है
अपने आंतरिक व बाह्य मामलों में हम किसी के अधीन नहीं है
अर्थात हम पर किसी बाहरी शक्ति का नियंत्रण नही हैं।
लोकतांत्रिक का अर्थ है कि समस्त शक्ति का केन्द्र जनता है।
गणराज्य का अर्थ है कि भारत का अध्यक्ष राष्ट्रपति वंशानुगत शासक न होकर अप्रत्यक्ष रूप से जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है
राज्य की सम्पूर्ण सत्ता जनता में निहित है।
धर्म निरपेक्ष राज्य :-
भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य हैं यहाँ सभी नागरिकों को अपने-अपने धर्मपालन की स्वतंत्रता है।
सरकार का कोई राजधर्म नहीं है भारत में विभिन्न संप्रदाय के लोग रहते हैं
सबको अपने धर्म की उपासना व अन्तःकरण की स्वतंत्रता प्राप्त है।
धर्म के नाम पर कोई भेदभाव नहीं रखा जाता है।
समाजवाद शब्द का अर्थ:-
44 वें संवैधानिक संशोधन द्वारा ‘समाजवादी’ शब्द को संविधान की प्रस्तावना में ही सम्मिलित कर लिया गया है।
हमारा संविधान देश में समाजवाद की स्थापना करना अपना मुख्य उद्देश्य मानता हैं पायली के शब्दों में
“विचार अभिव्यक्ति में हमारे संविधान की प्रस्तावना अनुपम हैं वह संविधान की आत्मा हैं तथा उसकी अमूल्य धरोहर है ।”
44 वें संशोधन के बाद संविधान प्रस्तावना इस प्रकार हो गई सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोक तांत्रिक धर्म निरपेक्ष समाजवादी गणराज्य।
प्रस्तावना में व्यक्त किये गये मूल उद्देश्य-
1. प्रस्तावना में स्पष्ट है कि शासन की अंतिम सत्ता जनता मे निहित होगी।
डॉ. अंबेडकर ने संविधान में कहा था-
“मैं समझता हूँ कि प्रस्तावना इस सदन के प्रत्येक सदस्य की इच्छानुसार यह स्पष्ट कर देती है
कि संविधान का आधार जनता हैं तथा इसमें निहित अधिकार और प्रभुसत्ता सब जनता से प्राप्त हुई है।”
2. संविधान को भारत की जनता ने बनाया तथा स्वीकृत किया है अतः कोई इसे नष्ट नहीं कर सकता ।
3. भारत में सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की गई है। प्रस्तावना में यह भी लक्ष्य रखा गया है कि भारत में धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य की स्थापना की जाए।
4. इस संविधान द्वारा भारत की जनता को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक अधिकारों, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास तथा धार्मिक स्वतंत्रता व समानता के अधिकार दिये गये हैं।
5. प्रस्तावना में यह भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि भारत की राष्ट्रीय एकता तथा अखंण्डता को हर कीमत पर बनाया जाएगा।
प्रस्तावना के मूल उद्देश्य –
1. जनता सम्प्रभु
2. संविधान सर्वोच्चपरि
3. प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्यों की स्थापना
4. स्वतंत्रता व समानता का अधिकार
5. राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की रक्षा
प्रस्तावना का महत्व (Importance of Framing of Indian Constitution)
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही संविधान निर्माताओं ने संविधान के महत्व को व्यक्त किया है यद्यपि प्रस्तावना संविधान का दर्पण है,
अत्यन्त महत्वपूर्ण व उद्देश्य प्रधान है तथापि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि संविधान की प्रस्तावना के अंतर्गत वर्णित बातों को लेकर न्यायालय में नहीं जाया जा सकता है
और न ही सरकार को कानूनी रुप से इसे मानने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
प्रस्तावना का महत्व निम्नानुसार है :-
1. संविधान की प्रस्तावना हमारे संविधान के निहित उद्देश्यों को दर्शाती हैं तथा सरकार को अपनी शासन पद्धति व कार्यक्षेत्र के निर्धारण हेतु मार्गदर्शन करती है।
2. प्रस्तावना में वर्णित संविधान के मूल उद्देश्यों को संविधान के विभिन्न् उपबंधों में मूर्त रुप दिया गया है
जिससे कि उन्हें प्राप्त किया जा सके अतः प्रस्तावना में जैसे नागरिकों को सामाजिक व राजनैतिक स्वतंत्रता, समता व न्याय प्रदान करने हेतु मौलिक अधिकारों का समावेश किया गया है।
3. संविधान की प्रस्तावना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि संविधान निर्माताओं ने भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का दृढ़ संकल्प किया है।
लोक कल्याणकारी योजना व कार्यक्रमों को अपनाकर संविधान ने लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का पथ प्रशस्त किया है।
श्री दुर्गादास बसु ने ठीक ही कहा है कि
“लिखित संविधान की प्रस्तावना संविधान में निहित व प्राप्त किये गये उद्देश्यों को दर्शाती है
तथा यह भी स्पष्ट करती है कि संविधान की दिशा क्या है और वह लोककल्याण हेतु किस तरह से अग्रसर होगा।
यह संविधान के उन उपबंधों की कानूनी व्याख्या करने भी सहायक सिद्ध होती है जहां कही उसकी भाषा अस्पष्ट होती है।”
4. भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन द्वारा समाजवादी धर्मनिरपेक्ष शब्दावली को जोड़ा गया है।
समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष के उपबंध के साथ राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में सम्मिलित किये गये हैं
पर उन्हें मौलिक अधिकारों के समान कानूनी मान्यता प्रदान नहीं की गयी है।
1976 में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा सामाजिक व आर्थिक व्यवस्थापन में मौलिक अधिकारों के स्थान पर नीति निर्देशक सिद्धांतों की महत्ता स्थापित की गयी।
प्रस्तावना का महत्व
- 1. सरकार को नीति निर्धारण में मार्गदर्शक
- 2. संविधान को मूल उद्देश्यों की प्राप्ति
- 3. लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना
- 4. समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना
भारतीय संविधान की विशेषताः-
प्रत्येक देश का संविधान उस देश की आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है।
हमारे संविधान निर्माताओं का उद्देश्य देश की परिस्थितियों के अनुरुप श्रेष्ठ व व्यवहारिक संविधान का निर्माण करना था।
उन्होंने संसार के सभी लोकतांत्रिक देशों के संविधान का अध्ययन करके उनके श्रेष्ठ तत्वों का हमारे संविधान में समावेश किया है।
भारतीय शासन अधिनियम १९३५ से संविधान का आकार, विषय सूची, भाषा तथा लगभग २०० धाराएं कुछ परिवर्तन के साथ ली गई है।
ब्रिटिश संविधान से हमने संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया।
अमेरिका के संविधान से हमने मूल अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय, उपराष्ट्रपति के पद की व्यवस्था एवं संविधान के संशोधन के प्रक्रिया को लिया।
आयरलैंड के संविधान से हमने नीति निर्देशक तत्व निर्वाचक मंडल राज्य सभा के १२ सदस्यों के मनोनयन की व्यवस्था को अंगीकृत किया है।
कनाडा संविधान से हमने संघ शब्द को लिया है।
शासन के अंगों के शक्ति विभाजन में अवशिष्ट सूची को, संघ को प्रदान करने की प्रेरणा भी हमें इसी संविधान से मिली है।
समवर्ती सूची, संघ व राज्य के मध्य विवाद की स्थिति में निराकरण के उपाय भी हमें आस्ट्रेलिया संविधान से प्राप्त किए हैं।
२१ वें अनुच्छेद में वर्णित व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विचार जापान के संविधान के सौजन्य से प्राप्त है
हमारे संविधान में संशोधन की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका के संविधान की देन है।
संकटकाल में राष्ट्रपति के संवैधानिक संकटकालीन अधिकार की व्यवस्था जर्मनी के संविधान से मिलती है
अतः हमारा संविधान श्रेष्ठ एवं व्यवहारिक है।
हमारे संविधान की निम्नांकित विशेषताएँ है –
1. विशाल संविधान :-
भारत का संवैधानिक विकास ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल से ही प्रारंभ हो गया था अर्थात् 1600 ईसवी में।
1858 का अधिनियम भारत परिषद् अधिनियम 1861, 1892 का अधिनियम, 1919, 1938 के अधिनियम ने संविधान के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भारतीय संविधान में ३९५ अनुच्छेद १० अनुसूचियाँ एवं २२ खंड है, अमेरिका के संविधान में २१ अनुच्छेद, कनाड़ा के संविधान में १४७ आस्ट्रेलिया के संविधान में १२८ अनुच्छेद है।
सर आइवर जैनिक्स के अनुसार –
“यह विश्व का सबसे बड़ा संविधान है भारत में विभिन्न वर्ग और धर्म के लोग रहते हैं संविधान के प्रत्येक विषय की विशद व्याख्या आवश्यक थी।”
संविधान की विशालता के कुछ प्रमुख कारण निम्नानुसार है –
1. भारत में संघीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है,
संघात्मक शासन प्रणाली के अनुसार प्रत्येक इकाई का अपना संविधान होता है
किन्तु भारत में इकाईों के पृथक संविधान नहीं हैं इसलिए इसका आकार वृहद है।
2. हमारे संविधान में केवल केन्द्रीय सरकार के विभिन्न अंगो का वर्णन नहीं है बल्कि राज्य सरकारों की शक्ति का वर्णन है।
हमारे संविधान में केन्द्र व राज्यों के मध्य तीन सूचियों (संघ सूची राज्य सूची समवर्ती सूची) में शक्तियों का विभाजन कर दिया गया है
तथा इसका विस्तृत विवेचन भी संविधान में दिया गया है इसलिए हमारा संविधान वृहद् है।
भारतीय संविधान में मूल अधिकारों व राज्य की नीति निर्देशक तत्वों का विस्तृत वर्णन है।
3. संकटकाल में सरकारों की क्या व्यवस्था होगी इसका विस्तृत वर्णन है।
साथ ही राज्य के अवशिष्ट विषयों को केन्द्र को सौंपने की व्यवस्था की गई है।
पिछड़ी व जनजाति हरिजनों के लिए विशेष प्रावधानों का उल्लेख है।
4. सन् १९३५ के अधिनियम की बहुत सी बातें इसमें समाविष्ट है।
जैसे नागरिकता, मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक तत्व, केन्द्रीय शासन की व्यवस्था, राज्यों की शासन व्यवस्था,
केन्द्र व इकाइयों का पारस्परिक संबंध, देश के भीतर व्यापार व वाणिज्य, लोक सेवायें, निर्वाचन आदि।
उपरोक्त सभी बातों के कारण कुछ संविधान आलोचक ये कहते हैं
भारतीय संविधान कोरी आदर्श कल्पना है इसका यहां के हवा, पानी, मिट्टी व जीवन की कठिनाईयों से कोई संबंध नहीं।
2. लिखित एवं निर्मित :-
हमारे संविधान में शासन संचालन संबंधी अधिकांश बातें लिखित रूप में है इसलिए यह लिखित संविधान है।
एक निश्चित समय में योजनाबद्ध तरीके से इसे संविधान सभा द्वारा बनाया गया
अतः यह निर्मित संविधान हैं।
प्रो. महादेवन के अनुसार
“भारत में जटिल परिस्थितियों तथा भारतीय जनता की राजनैतिक अनुभवहीनता को ध्यान में रखते हुए
भारतीय संविधान निर्माताओं ने यह उचित समझा कि सब बातें स्पष्ट रुप से संविधान में लिखी रहें और कोई खतरा न हो।”
इंग्लैंड के संविधान का अधिकांश भाग अलिखित हैं
वहां कोई विद्यार्थी यदि शासकीय लायब्रेरी में इग्लैंड के संविधान की मांग करें
तो उसे केवल टीकाएँ दी जावेगी वह एक पुस्तक के रुप में उपलब्ध नहीं।
भारत का संविधान एक संविधान सभा ने निश्चित समय तथा योजना के अनुसार बनाया था
इसलिए इसमें सरकार के सगंठन के अधिकतर आधारभूत सिद्धांत औपचारिक रुप से लिख दिये गये हैं।
व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का संगठन उनकी कार्यप्रणाली, नागरिकों के साथ उनके संबंध, नागरिकों के अधिकार
और कर्तव्यों के विषय में स्पष्ट रूप से विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
3. संघात्मक होते हुए भी एकात्मकः-
हमारे संविधान की यह महत्वपूर्ण विशेषता है कि इसका उपरी
ढांचा संघात्मक है लेकिन इसकी आत्मा एकात्मक है।
वर्तमान संविधान में संघात्मक तथा एकात्मक दोनों ही शासन प्रणालियों की विशेषता संविधान में पायी जाती है
इसमें संघात्मक शासन की निम्न विशेषता है :-
1. संघात्मक संविधान के रुप में सर्वप्रथम केंद्र तथा राज्यों के बीच ३ सूचियों के अंतर्गत शक्तियों का विभाजन किया गया है
संघ सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची।
संघ सूची में दिये हुए विषयों पर संसद कानून बनाती है।
2. राज्य सूची के विषय में राज्यों के विधानमंडल तथा समवर्ती सूची के विषय पर संसद तथा राज्यों के विधानमंडल दोनों ही कानून बनाते हैं।
भारत का संविधान केन्द्र तथा राज्यों की शक्तियों का सर्वोच्च स्रोत है।
इसकी व्यवस्था का कोई भी सरकार उल्लंघन नहीं कर सकती।
3. संघीय न्यायपालिका स्वतंत्र व सर्वोच्च हो तथा संघीय शासन में न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रुप में कार्य करती है।
यदि केन्द्रीय व राज्य सरकारें कोई भी ऐसा कानून बनाती है अथवा लागू करती है,
जो संविधान के विरुद्ध हैं तो न्यायपालिका ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
इससे सिद्ध होता है कि भारत का संविधान संघात्मक है।
4. भारतीय संविधान में संघीय सूची और राज्य सूची द्वारा संघीय सरकार व राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है।
संविधान लिखित दस्तावेज है और इसमें संशोधन किये जाने के लिए विशेष प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक है।
भारत में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया है जो संविधान के संरक्षक के रुप में कार्य करता है।
भारत का संविधान संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है क्योंकि-
१. संघीय सूची में ९७ विषय शामिल हैं और समवर्ती सूची में ४७ विषय सम्मिलित हैं।
२. अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र में निहित की गई हैं।
३. सम्पूर्ण देश में इकहरी न्यायापालिका है जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है।
४. संविधान में इकहरी नागरिकता का प्रावधान है।
५. अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी सम्पूर्ण भारत में कार्य करते हैं जिनकी सेवा की शर्ते संघीय सरकार निश्चित करती है।
६. सम्पूर्ण भारत में एक दीवानी और फौजदारी कानून है।
७. राज्य सरकारों पर संघीय सरकार का नियंत्रण निम्नलिखित प्रकार से विद्यमान रहता है।
क) राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
ख) राज्यों के शासन संचालन हेतु केन्द्र निर्देश दे सकता है।
ग) राज्यों में कुछ कानून तभी मान्य होते हैं जब राज्यपाल राज्य को विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित करके उस पर राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त कर ले।
८. राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार इतने व्यापक हैं कि आवश्यकता पड़ने पर उनके प्रयोग द्वारा संघात्मक शासन को एकात्मक शासन में बदला जा सकता है।
९) योजना आयोग का माध्यम एवं केन्द्र द्वारा राज्यों को अनुदान।
१०. योजना आयोग के माध्यम से संघीय सरकार राज्यों की सरकारों पर हावी रहती है
वित्त आयोग की शिफारिशों के आधार पर संघीय सरकार राज्यों की सरकारों को वित्तीय अनुदान देती है
जिसके कारण राज्य सरकारें केन्द्र का मुह ताकती रहती हैं व्यवहार में इनका प्रयोग प्रधानमंत्री व मंत्रिमंडल करता है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत के संविधान में एकात्मक व संघात्मक दोनों ही प्रणालियों की विशेषता पाई जाती है।
अतः इसे संघात्मक होते हुए भी एकात्मक कहना उपयुक्त है।
भारतीय संविधान का एकात्मकता की ओर झुकावः-
- १) लंबी संघीय और समवर्ती सूचियाँ।
- २) अवशिष्ट शक्यिाँ केन्द्र में निहित।
- ३) इकहरी न्यायापालिका ।
- ४) इकहरी नागरिकता।
- ५) अखिल भारतीय सेवाएँ।
- ६) दीवानी व फौजदारी कानून
- ७) राज्य सरकारों पर संघीय सरकार का नियंत्रण।
- ८) राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार।
डा अम्बेडकर का कथन है कि भारतीय संविधान को संघीय और एकात्मक समय और परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार बनाया जा सकता है।
संविधान की रचना ऐसी है कि सामान्य काल में इसे संघीय संविधान के रुप में काम में लाया जा सकता है
और युद्ध काल में पूरी तरह एकात्मक बन सकता है।
4. कठोर व लचीले का अद्भुत मिश्रणः-
भारत के संविधान के संबंध में यह कहा जाता है
कि भारत का संविधान न तो अमेरिका की तरह कठोर है और न ही इग्लैंड जैसा लचीला है।
भारतीय संविधान की मूल प्रकृति कठोर हैं
क्योंकि हमारे संविधान के अनुच्छेद ३६८ में संविधान संशोधन की विशेष प्रणाली अपनाई गई है
उसमें साधारण एवं संवैधानिक कानूनों ने अंतर किया गया है।
संविधान में संशोधन का अधिकार संसद को है संशोधन की दो विधियां अपनाई गई है –
१. संसद के बहुमत एवं उपस्थित सदस्यों के २/३ बहुमत से
२. संविधान के कुछ भागों में संशोधन के लिए राज्यों की विधान सभाओं की सहमति आवश्यक है।
३. संविधान में २२ अनुच्छेद ऐसे हैं जिनका संशोधन संसंद उसी प्रक्रिया में करती है
जिस प्रक्रिया से वह कितु उन्हें अनुच्छेद ३६८ द्वारा संशोधित नहीं माना जावेगा।
साधारण कानूनों को पारित करती है संविधान सभा में पं. जवाहरलाल नेहरु जी ने कहा था
किसी भी दशा में हम इस संविधान को इतना दुष्परिवर्तन शील नहीं बना सकते कि वह देश की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरुप न बनाया जा सके।
भारतीय संविधान में अब तक १०० से अधिक संशोधन किये जा चुके है।
5. सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य की स्थापनाः –
संविधान की प्रस्तावना में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य की स्थापना को स्वीकृत किया गया है।
सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न का अर्थ हैं राज्य आंतरिक व बाह्य रुप से सम्प्रभू है
अर्थात कोई भी बाहरी देश भारत की आंतरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, केन्द्र की इच्छा ही सर्वोपरि है ।
राज्य में रहने वाले सभी व्यक्ति व संस्थाएँ राज्य की आज्ञा को मानने के लिए बाध्य हैं
भारत राज्य बाध्य रुप से किसी अन्य देश के आधीन नहीं है वह अपनी स्वतंत्र विदेशी नीति बना सकता है
उसे लागू कर सकता है।
उस पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से कोई भी विदेशी दबाव नहीं डाल सकता।
6. लोकतंत्रात्मक राज्य की स्थापना:-
इसका अर्थ यह है कि संविधान द्वारा भारत में लोकतंत्रात्मक
राज्य की स्थापना की गई है।
इसमें शासन की सत्ता जनता में निहित होती है।
जनता इसका प्रयोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा करती है।
जनता वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रतिनिधियों का चुनाव करती है।
केन्द्रीय शासन लोकसभा के प्रति व राज्यों के शासन विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होकर कार्य करता है।
यदि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि यह अनुभव करते हैं
कि प्रशासक वर्ग अपने उत्तरदायित्वों का सही निर्वाह नहीं कर रहे हैं तो वह उन्हें अपदस्थ कर सकती है।
हमारे संविधान में समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किया गया है प्रत्येक को विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
धर्म व उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त है।
प्रस्तावना में स्पष्ट है कि संविधान का निर्माण भारत के लोग कर रहे हैं तथा इन्ही की इच्छा सर्वोपरि होगी।
यदि जनता चाहे तो संविधान में परिवर्तन कर सकती है।
इससे सिद्ध होता है कि जनता सम्प्रभु है, भारत की शासन व्यवस्था लोकंतत्रात्मक है।
7. गणराज्य की स्थापना :-
भारतीय संविधान गणराज्य की स्थापना का संकल्प लेता है।
गणराज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है जिसमें शासन का सर्वोच्च पद आनुवांशिक न होकर जनता द्वारा निर्वाचित होता है।
हमारे शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी राष्ट्रपति होता है
जिसका निर्वाचन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि करते है
भारत में सदियों से चली रही राजतंत्र व्यवस्था को समाप्त कर गणराज्य की स्थापना की गई है।
गार्नर ने गणराज्य की परिभाषा करते हुए लिखा है कि-
“यह राज्य का वह रुप है जिसमें शासन की सत्ता कई मनुष्यों के हाथ में है।
भारत में भी शासन की सत्ता राष्ट्रपति के हाथ में न होकर जनता द्वारा निर्वाचित प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद के हाथ में होती है
जो सामूहिक रुप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।”
भारतीय संविधान में भी यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि शासन का संचालन वर्ग विशेष के हित में न होकर सामान्य जनता के हितार्थ किया जावेगा।
लिंग, जाति, धर्म, सप्रदाय आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा राज्य का स्वरुप लोक कल्याणकारी होगा।
8. धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना: –
भारत में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई है। धर्म निरपेक्ष राज्य
वह राज्य होता है जो सभी धर्मो को समान मानता है और सभी धर्मो के विकास का समान अवसर देता है।
इस प्रकार धर्म को राजनीति से पृथक करता है।
राज्य की कोई धार्मिक नीति नहीं होती हमारे संविधान में लिखा गया है
कि धर्म के आधार पर सरकारी नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
देश के सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को स्वीकार करने उसका प्रचार प्रसार करने की स्वतंत्रता होगी
राज्य से सहायता प्राप्त स्कूलों कालेजों में विशेष धार्मिक शिक्षा नहीं दी जावेगी।
प्रत्येक धर्मावलम्बियों की धार्मिक संस्थाएं स्थापित करने, उनका प्रबंध करने, चल-अचल संपत्ति को रखने का अधिकार होगा।
इससे सिद्ध होता है
कि राज्य की ओर से धार्मिक क्षेत्र में पूर्व स्वतंत्रता दी जावेगी।
राज्य उसमें असाधारण स्थिति को छोड़कर सामान्य स्थिति में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
9. समाजवादी राज्य की स्थापना:-
संविधान के ४२ वें संशोधन द्वारा समाजवादी शब्द जोड़ा गया है।
संविधान के ४४वें संशोधन में भी इसको प्रस्तावना में दिया गया है।
समाजवादी राज्य का ध्येय राज्य के समस्त नागरिकों का कल्याण है।
भारतीय संविधान की विशेषता:-
- १. विशाल संविधान
- २. लिखित व निर्मित
- ३. संघात्मक संबिधान
- ४. संघात्मक होते हुए भी एकात्मक की और उन्मुख
- ५. सम्पूर्ण प्रभूत्व सम्पन्न राज्य की स्थापना ।
- ६. लोकतंत्रात्मक राज्य की स्थापना
- ७. गणराज्य की स्थापना
- ८. धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना
- ९. समाजवादी राज्य की स्थापना
- १०. संसदीय शासन की स्थापना एवं संसद की सर्वोच्चता
- ११. सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना
- १२. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को विशेष अधिकार।
- १३. एक नागरिकता एक राष्ट्र भाषा।
- १४ साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली
- १५. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग शांति एवं विश्व शांति पर बल
- १६. वयस्क मताधिकार
- १७, नागरिकों के मौलिक अधिकार
- १८. राज्य के नीति निर्देशक तत्व
- १९. मौलिक कर्त्तव्य।
समाजवाद समानता पर आधारित है यह उत्पादन के साधनों (भूमि, श्रम, पूंजी, श्रम व संगठन साहस,) का राष्ट्रीकरण चाहता है अर्थात उनका उद्देश्य सामाजिक कल्याण है।
यह लोकतांत्रिक पद्धति के द्वारा समान सामाजिक व्यवस्था की स्थापना चाहता है।
वितरण के साधनों पर भी राज्य का स्वामित्व चाहता है जिससे शोषण, गरीबी बेरोजगारी जैसे संघर्ष का अंत हो।
यह उत्पादन भी समाज के हित के कारण चाहता है।
10. संसदीय शासन की स्थापना एवं संसद की सर्वोच्चयताः- भारत का संविधान संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना करता है।
संसदीय शासन प्रणाली के अनुसार राज्य का सर्वोच्च अधिकारी (राष्ट्रपति) नाम मात्र का प्रधान होता है।
राज्यशासन संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। देश की कार्यकारिणी का प्रधान प्रधानमंत्री होता है
तथा वह मंत्रिपरिषद की सलाह से शासन चलाता है।
प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
ससंद के समक्ष प्रधानमंत्री और उसके मंत्रि मंडल को अपने कार्यों का बिवरण देना होता है।
संसद के सदस्यों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर भी प्रधानमंत्री और उसके मंत्रीमंडल को देना होता है।
प्रधानमंत्री और उसका मत्रीमंडल उसी समय तक अपने पद पर आसीन रह सकता है
जब तक कि उसे संसंद का विश्वास प्राप्त हो।
यदि संसद द्वारा प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिमंडल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया जाये
तो प्रधानमंत्री को अपने मंत्रिमंडल सहित अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ता है।
अतः उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में ससंद की सर्वोच्चता है।
11. सर्वोच्च न्यायालय की स्थापनाः –
सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि भारत में संधीय शासन प्रणाली है
जिसमें संघ और राज्यों के बीच संविधान के द्वारा शक्ति का विभाजन किया गया है।
दोनों सरकारों की शक्तियों का स्त्रोत संविधान है।
अतः संविधान की सुरक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का होना अति आवश्यक है ।
इसके अतिरिक्त मूल अधिकारों की सुरक्षा के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय का होना आवश्यक माना जाता है।
हमारे देश को न्यायपालिका संविधान तथा मूल अधिकारों की संरक्षिका के रुप में कार्य करती है।
यदि विधायिका कोई कानून बनाती है,
जिनसे मूल अधिकारों अथवा संविधान का उल्लंधन होता है तो सर्वोच्च न्यायालय उसको असंवैधानिक घोषित कर देता है।
पिछले ३७ वर्षों में अनेक बार सर्वोच्च न्यायलय अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता का परिचय देते हुए
अनेक कानूनों को असंवैधानिक घोषित किया है।
12. अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए विशेष अधिकार :-
भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों व जनजातियों की सुरक्षा की व्यवस्था की गई है
हमारे देश में अस्पृश्यता का रोग सदियों से चला आ रहा है।
संविधान के द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है
और यह व्यवस्था की गई है कि यदि कोई व्यक्ति इसको बढ़ावा देता है तो दंड का भागी होगा।
केवल दलित वर्ग सदैव शिक्षा, संपत्ति व मानवीय अधिकारों से वंचित रहा है।
अतः संविधान निर्माताओं ने उन्हें धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में विशेष सुविधाएं देने की व्यवस्था की है।
संसद व विधानमंडलों में उनके लिए पद सुरक्षित रखे गये है।
शिक्षा व सरकारी सेवाओं में उन्हें आरक्षण दिया गया हैं।
इसके अतिरिक्तु असम, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों में कुछ पिछड़ी जातियों को विशेष सुविधा दी गई है।
13. एक नागरिकता एक राष्ट्र भाषाः –
संविधान के द्वारा सम्पूर्ण राज्य के लिए एक नागरिकता व एक राष्ट्रभाषा का सिद्धांत अपनाया है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के समान हमारे यहा के नागरिक दोहरी नागरिकता नहीं रखते अर्थात वे अपने राज्य व केन्द्र शासन के पृथक-पृथक नागरिक नहीं है,
भारतीय संघ के नागरिक है।
इसी प्रकार राष्टभाषा के रुप में हिन्दी को प्रतिष्ठित किया गया है।
क्षेत्रीय भाषाओं को भी संविधान में स्थान दिया गया है किंतु राष्ट्रभाषा केवल हिंदी है।
14. साम्प्रदायिकता का अंतः-
अंग्रेजों के द्वारा फूट डालो और शासन करो की नीति को भारतीय संविधान में समाप्त कर दिया गया हैं।
इस हेतु साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर उसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया है
इसी प्रकार के साम्प्रदायिक अधिकारों को समाप्त कर सभी वर्ग के लोगों को समान आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक अधिकार दिये गये हैं
तथा देश में लोकतांत्रिक पद्धति की स्थापना की गई है।
15. अतंर्राष्ट्रीय सहयोग एवं विश्व शांति पर बल :-
भारतीय संविधान सभी राष्ट्रों की स्वतंत्रता में विश्वास रहता हैं
वह चाहता है कि विश्व शांति सहयोग व सुरक्षा की उन्नति हो तथा राष्ट्रों के मध्य न्याय व सम्मानपूर्वक संबंध स्थापित हो।
भारत का संविधान विश्व शांति का पोषक है एवं बसुधैव कुटुम्बकम की भावना में विश्वास रखता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद ५१ में वह राज्यों को आदेश देता है
कि वह अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा में विश्वास रखते हुए
न्यायपूर्ण सम्मान, पूर्ण संबंधों की स्थापना करें तथा अपने पारस्परिक व्यवहार में अंतर्राष्ट्रीय विवादों को समझौते, पंच फैसले द्वारा सुलझाने का प्रयास करें
जिससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व शांति स्थापित रह सकें।
16. वयस्क मताधिकारः-
भारतीय संविधान भारत के प्रत्येक १८ वर्ष के स्त्री पुरुष को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार देता है।
यद्यपि विपक्षी यह तर्क देते हैं कि अशिक्षित व आर्थिक राजनीतिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों को यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए
किंतु हमारे संविधान निर्माता सही अर्थो में भारत में लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे,
अतः संविधान में वयस्क मताधिकार को स्थान दिया गया।
वयस्क मताधिकार को अपनाया जाना हमारे संविधान की महान व क्रांतिकारी विशेषता है
इससे साम्प्रदायिकता, सामाजिक विषमता का अंत होगा तथा जिम्मेदार नागरिकों का सृजन होगा
साथ ही देश की एकता व अखण्डता में भी वृद्धि होगी।
17. नागरिकों के मौलिक अधिकार :-
संयुक्त राज्य अमेरिका, आयरलैंड व रुस के संविधानों की भांति हमारे देश में भी नागरिकों को मौलिक अधिकार देने का प्रावधान संविधान में किया गया है।
मूल अधिकार वे अधिकार हैं जिनके बिना नागरिक अपना सम्पूर्ण विकास नहीं कर सकते।
व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास के लिए इनका होना अत्यंत आवश्यक है ।
अत: इन्हें न्याय पालिका का संरक्षण भी संविधान द्वारा दिया गया है।
कोई भी सरकार विशेष परिस्थितियों को छोड़कर इन्हें नहीं छीन सकती है।
भारतीय संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकार है
- 1. समानता का अधिकार,
- 2. स्वतंत्रता का अधिकार,
- 3. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
- 4. संस्कृति व शिक्षा का अधिकार,
- 5. शोषण के विरुद्ध अधिकार,
- 6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
18. राज्य के नीति निर्देशक तत्व :-
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धातों का उद्देशय एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना हैं
जिससे न्याय स्वतंत्रता और समानता स्थापना की जा सके।
संविधान ने इनके माध्यम से व्यवस्थापिकाओं और कार्यपालिकाओं को यह निर्देश दिया है
कि वे किस प्रकार से अपनी शक्तियों का प्रयोग करें।
ये शासन के आधारभूत सिद्दांत हैं।
यद्यपि इनके पालन न करने पर राज्य को दंडित नहीं किया जा सकता है।
किंतु इनके आधार पर जनता राज्य के कार्यों की समीक्षा करती है तथा यदि सरकारें इन सिद्धातों का पालन नहीं करती
तो जनता चुनाव के माध्यम से ऐसी सरकार को हटा सकती है।
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में कुछ सामान्य सिद्धांत हैं कुछ आर्थिक, सामाजिक, कानूनी व प्रशासनिक तथा अंतराष्टीय संबंध रखने वाले सिद्धांत है।
जिन्हें अपनाकर कोई शासन कल्याणकारी बन सकता है।
अतः एस.सी. छागला ने लिखा है कि
“इन सिद्धातों का पालन करके भारत को स्वर्ग बनाया जा सकता है।
सामूहिक रुप से ये सिद्धांत लोकतंत्रात्मक भारत का शिलान्यास करते हैं,
ये भारतीय जनता के आदर्शों व आकांक्षाओं का वह क्षण है
जिन्हें भारतीय संविधान सीमित अवधि में प्राप्त कर लोक कल्याणकारी राज्य की नींव डालना चाहती है।”
19. मौलिक कर्त्तव्यः-
करने योग्य कार्य कर्त्तव्य कहलाते हैं, जिनसे समाज का विकास होता है।
२६ जनवरी १९५० में लागू संविधान में मौलिक कर्तव्यों का कोई उल्लेख नहीं था,
किन्तु संविधान के ४२ संशोधन के चतुर्थ भाग में दस मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया है।
मौलिक कर्तव्यों के बारे में इंदिरा गांधी ने कहा था कि
“अगर हम लोग मौलिक कर्तव्यों को अपने दिमाग में रख लेंगे तो शांतिपूर्ण व मैत्रीपूर्ण क्रांति देख सकेंगे।”