पाई (π) का भारतीय इतिहास
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पाई (π) का भारतीय इतिहास
1. आर्यभट (476 ई. -550ई. )
पहले गणितज्ञ थे जिन्होंने परिधि और व्यास के अनुपात अर्थात पाई (π) का लगभग परिमित मान निकाला था।
चतुरधिकम् शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम्।
अयुतद्वय विष्कम्भस्य आसन्नो वृत्त परिपाहः।।
सौ से चार जोड़कर उसे 8 से गुणा करें और उसमे 62000 जोड़े।
यह योगफल 20,000 व्यास के वृत्त की परिधि का लगभग माप होगा अर्थात 20,000 व्यास के वृत्त की परिधि लगभग 62832 होगी।
पाई (π)= परिधि/व्यास =62832/20000
इस प्रकार उनके अनुसार पाई = 3.1416 (लगभग) जो दशमलव के 4 स्थानों तक आज भी सही है।
2. भास्कराचार्य( 1114 ई. – 1193ई. )
ने अपने ग्रंथ लीलावती मे पाई (π) का मान दिया है।
व्यासे भनन्दाग्नि हते विभक्ते खबाग सूर्योः परिधि स सूक्ष्मः।
द्वाविंशतिघ्ने विहृतेsथशैलैः स्थूलोsथवास्याद् व्यवहार् योग्यः।।
व्यास को 3927 से गुणा कर 1250 से भाग देने पर सूक्ष्म परिधि होती हैं।
अथवा व्यास को 22 से गुणा कर 7 से भाग देने पर व्यवहार के योग्य परिधि का स्थूल मान प्राप्त होता है।
3. अनुपम गणितज्ञ स्वामीभारती कृषणतीर्थ (1884 – 1960 )
ने पाई /10 का मान सुविदित अनुष्टुप छंद मे तथा वर्णमाला की कुट भाषा में दिया है।
गोपी भाग्यमधुव्रात – श्रृंगिशोदधिसंधिग।
खलजीवित खाताव गलहाला रसंधर। ।
स्वामी जी के अनुसार, इस छंद के तीन उपयुक्त अर्थ निकाले जा सकते हैं।
पहले अर्थ में तो यह भगवान श्रीकृष्ण जी की स्तुति हैं।
दूसरे अर्थ में भगवान शंकर की स्तुति हैं तथा तीसरे अर्थ में π/10 का मान दशमलव के बत्तीस स्थान तक हैं।
π/10 =0.31415926535897932384626433832792
इन्होंने वैदिक गणित नामक ग्रंथ की रचना की इसमें 16 सूत्र तथा 13 उपसूत्र हैं।
4. श्रीनिवास रामानुजन (1887 – 1920ई.)
रामानुजन का यूरोप में जो पहला शोध निबंध प्रकाशित हुआ उसका शीर्षक था प्रतिरूपक समीकरण और π के सन्निकट मान ( मोड्यूलर इक्वेशन एंड एप्रोक्सिमेशन टू π ) उन्होने π के सन्निकट मान के लिए कई सूत्रों की खोज की।
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