ट्रांसफार्मर (Transformer)
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ट्रांसफार्मर यह ऐसा यन्त्र होता है जो प्रत्यावर्ती वोल्टेज को बिना विद्युत् ऊर्जा नष्ट किये परिवर्तित कर देता है अर्थात् बढ़ा देता है या घटा देता है।
यह अन्योन्य प्रेरण के सिद्धान्त पर आधारित है।
इसकी रचना सर्वप्रथम फैराडे ने की थी।
ट्रांसफार्मर के प्रकार –
ट्रांसफार्मर दो प्रकार के होते हैं
(i) अपचायी ट्रांसफार्मर (Step-down Transformer)–
यह ट्रान्सफॉर्मर प्रत्यावर्ती वोल्टेज को घटा देता है।
(ii) उच्चायी ट्रांसफार्मर (Step-up Transformer)–
यह ट्रांसफार्मर प्रत्यावर्ती वोल्टेज को बढ़ा देता है।
इनमें से एक कुण्डली में मोटे तार के कम फेरे तथा दूसरी कुण्डली में पतले तार के अधिक फेरे होते हैं।
जिस कुण्डली में फेरों की संख्या कम होती है, उसमें अधिक धारा प्रवाहित होती है।
अतः इनकी कुण्डली मोटे तार की बनायी जाती है।
जिस कुण्डली के सिरों पर प्रत्यावर्ती वोल्टेज लगाया जाता है, उसे प्राथमिक कुण्डली तथा दूसरी कुण्डली को द्वितीयक कुण्डली कहते हैं।
चित्र (a) में अपचायी ट्रांसफार्मर प्रदर्शित किया गया है। इ
सकी प्राथमिक कुण्डली में फेरों की संख्या द्वितीयक कुण्डली की तुलना में अधिक होती है।
चित्र (b) में उच्चायो ट्रांसफार्मर प्रदर्शित किया गया है।
इसकी प्राथमिक कुण्डली में की संख्या द्वितीयक कुण्डली की तुलना में कम होती है।
बनावट –
ट्रान्सफॉर्मर के मुख्य तीन भाग होते हैं-
पटलित क्रोड, प्राथमिक कुण्डली और द्वितीयक ।
नर्म लोहे को बनी कई आयताकार पट्टियाँ लेते हैं।
इनके बीच का आयताकार भाग काटकर अलग कर दिया जाता है।
इन पट्टियों को विद्युतरोधी पदार्थ की तह देकर तथा इन्हें जोड़कर आवश्यक मोटाई का है।
यह पटलित क्रोड कहलाता है।
क्रोड के पटलित होने से भँवर धाराओं का मान बहुत ही कम हो जाता है।
क्रोड की दो सम्मुख भुजाओं पर तांबे के विद्युतरोधी तार की एक-एक कुण्डली लिपटी होती है।
किसी विद्युत् परिपथ में अपचायी और उच्चायी ट्रांसफार्मर को क्रमशः चित्र (a) और (b) द्वारा प्रदर्शित करते हैं।
कार्य-विधि एवं सिद्धान्त-
जब प्राथमिक कुण्डली के सिरों के बीच प्रत्यावर्ती बोल्टेज लगाया जाता है तो उसमें प्रत्यावर्ती धारा प्रवाहित होने लगती है
जिससे धारा के प्रत्येक चक्र में क्रोड एक दिशा में तत्पश्चात् दूसरी दिशा में चुम्बकित होता है।
अतः क्रोड में परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है।
द्वितीयक कुण्डली उसी क्रोड पर लिपटी रहती है।
अतः द्वितीयक कुण्डलो से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में बार-बार परिवर्तन होने लगता है।
फलस्वरूप विद्युत् चुम्बकीय प्रेरण से द्वितीयक कुण्डली में उसी आवृत्ति का प्रत्यावर्ती वोल्टेज उत्पन्न हो जाता है।
मानलो प्राथमिक और द्वितीयक कुण्डलियों में फेरों की संख्या क्रमश: Np और Ns है।
यदि किसी क्षण प्राथमिक कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स Φ हो तो उसमें प्रेरित वि. वा. बल
Ep = Np. dΦ / dt….(1)
यदि चुम्बकीय पलक्स का क्षरण न हो रहा हो तो द्वितीयक कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स का मान भी Φ होगा।
अत: द्वितीयक कुण्डली में प्रेरित वि. वा. बल
Es =Ns. dΦ /dt……(2)
समी. (2) में समी. (1) का भाग देने पर,
Es / Ep = Ns/NP….(3)
मानलो किसी क्षण प्राथमिक और द्वितीयक कुण्डलियों में बहने वाले धाराएँ क्रमश: Ip और Is, हैं। तब आदर्श स्थिति में,
प्राथमिक कुण्डली में शक्ति = द्वितीयक कुण्डली में शक्ति
Ip ×Ep = Is × Es
Es /Ep = Ip / Is……..(4)
सभी (3) और (4) से स्पष्ट है कि यदि Es, <Ep, हो, तो Ns <Np तथा Ip <Is,
अत: अपचायी ट्रांसफार्मर (Es<Ep ) की द्वितीयक कुण्डली में फेरों की संख्या प्राथमिक कुण्डली की तुलना में कम होती है।
यह ट्रान्सफॉर्मर धारा की प्रबलता को बढ़ा देता है।
पुन: यदि Es, >Ep, और Ns, >Np, तथा Is > Is,
अतः उच्चायी ट्रान्सफॉर्मर (Es >Ep, ) की द्वितीयक कुण्डली में फेरों की संख्या प्राथमिक कुण्डली की तुलना में अधिक होती है।
यह ट्रान्सफॉर्मर धारा की प्रबलता को घटा देता है।
समी (3) और (4) से,
Es / Ep = Ip /Is = Ns = Np =K (एक नियतांक)
इस नियतांक K को ट्रान्सफॉर्मर का परिणमन अनुपात (Transformation Ratio) कहते हैं।
ट्रान्सफॉर्मर की द्वितोयक कुण्डली में फेरों की संख्या और प्राथमिक कुण्डली में फेरों की संख्या के अनुपात को ट्रान्सफॉर्मर का परिणमन अनुपात कहते हैं।
अपचायी ट्रान्सफॉर्मर के लिए K का मान एक से कम तथा उच्चायी ट्रान्सफॉर्मर के लिए K का मान एक से अधिक होता है।
ट्रांसफार्मर की दक्षता-
द्वितीयक कुण्डली द्वारा प्राप्त ऊर्जा और प्राथमिक कुण्डली को दी गई ऊर्जा के अनुपात को ट्रान्सफॉर्मर की दक्षता कहते हैं।
सूत्र के रूप में,
ट्रान्सफॉर्मर की दक्षता =द्वितीयक कुण्डली द्वारा प्राप्त ऊर्जा / प्राथमिक कुण्डली को दी गई ऊर्जा
= निर्गत शक्ति / निवेशी शक्ति
एक आदर्श ट्रान्सफॉर्मर की दक्षता 100% होती है,
किन्तु विभिन्न रूपों में ऊर्जा ह्रास होने के कारण व्यावहारिक ट्रान्सफॉर्मर की दक्षता सदैव 100% से कम (70% से 95% तक) होती है।
अनुप्रयोग-
(i) पावर हाउस में उत्पन्न विद्युत् धारा की प्रबलता अधिक होती है। इस धारा को इसी रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं पहुँचाया जा सकता
क्योंकि धारा की प्रबलता अधिक होने से उत्पन्न ऊष्मा का मान अधिक होगा
जिससे विद्युत् ऊर्जा का ऊष्मा ऊर्जा में अपव्यय होने लगेगा।
इसके अतिरिक्त प्रबल धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए मोटे तार की आवश्यकता होगो जो कि आर्थिक रूप से खर्चीला होगा।
अतः सर्वप्रथम उच्चायी ट्रान्सफॉर्मर की सहायता से विद्युत् धारा के विभवान्तर को बढ़ा दिया जाता है जिससे की धारा प्रबलता कम हो जाती है।
इस धारा को कम खर्चे में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाया जा सकता है।
घरों में विद्युत् धारा देने के पहले अपचायी ट्रान्सफॉर्मर की सहायता से विभवान्तर को साधारण मान पर लाया जाता है।
(ii) रेडियो सेट, टेलीविजन, टेलीफोन, वायरलेस इत्यादि में।
(iii) बैटरी, ऐलिमिनेटर और पावर सप्लाई में (IV) वेल्डिंग करने में तथा विद्युत् भट्टियों में।
(v) रेफ्रिजरेटर में।
अपचायी ट्रांसफार्मर और उच्चायी ट्रांसफार्मर में अंतर –
अपचायी ट्रांसफार्मर | उच्चायी ट्रांसफार्मर |
1. यह ट्रांसफार्मर प्रत्यावर्ती विभवांतर को घटा देता है। | 1. यह ट्रांसफार्मर प्रत्यावर्ती विभवांतर को बढ़ा देता है। |
2. इसकी द्वितीय कुंडली में शेरों की संख्या प्राथमिक कुंडली से कम होती है। | 2. इसकी बिटिया कुंडली में शेरों की संख्या प्राथमिक कुंडली से अधिक होती है। |
3. यह धारा की प्रबलता को बढ़ा देता है। | 3. यह धारा की प्रबलता को घटा देता है। |
4. इसका परिणमन अन अनुपात 1 से कम होता है। | 4. इसका परिणमन आन अनुपात एक से अधिक होता है। |
ट्रांसफार्मर में ऊर्जा ह्रास (Energy Loss in Transformer) –
सैद्धांतिक रूप से हमने माना है कि ट्रान्सफॉर्मर में ऊर्जा का ह्रास नहीं होता
किन्तु व्यावहारिक रूप से सदैव कुछ न कुछ ऊर्जा का ह्रास होता रहता है।
यह ह्रास निम्नानुसार होता रहता है-
(i) ताम्र ह्रास (Copper loss)-
ट्रान्सफॉर्मर की प्राथमिक एवं द्वितीयक कुण्डलियों से विद्युत् धारा प्रवाहित होने पर जूल प्रभाव के कारण उनमें ऊष्मा उत्पन्न होती है।
इस ऊष्मा का मान I² R होता है।
जहाँ I प्रवाहित होने वाली धारा की प्रबलता तथा R प्रतिरोध है।
ऊष्मा के रूप में ऊर्जा के इस हास को ताम्र ह्रास कहते है।
प्राथमिक एवं द्वितीयक कुण्डली में ताँबे के मोटे तार का उपयोग करके इस हास को कम किया जा सकता है।
(ii) लौह ह्रास (Iron loss) –
क्रोड में भँवर-धाराएँ उत्पन्न होने के कारण होने वाली ऊर्जा ह्रास को लौह हास कहते हैं।
इस ह्रास के मान को कम करने के लिए क्रोड को पटलित (Laminated) बनाया जाता है।
(iii) चुम्बकीय फ्लक्स क्षरण (Magnetic flux leakage)—
प्राथमिक कुण्डली में विद्युत् धारा प्रवाहित करने पर उत्पन्न समस्त चुम्बकीय फ्लक्स द्वितीयक कुण्डली से बद्ध नहीं हो पाता।
अत: कुछ ऊर्जा का ह्रास हो जाता है।
ऊर्जा के इस ह्रास को चुम्बकीय पलक्स क्षरण कहते हैं।
इसे कम करने के लिए प्राथमिक कुण्डलों के ऊपर ही द्वितीयक कुण्डली के तार को लपेटा जाता है।
(iv) शैथिल्य ह्रास (Hysteresis loss)—
प्राथमिक कुण्डली में प्रत्यावर्ती धारा प्रवाहित करने पर क्रोड बार-बार चुम्बकित और विचुम्बकित होता रहता है
जिससे कुछ ऊर्जा का ह्रास होता रहता है।
इस ह्रास को शैविल्य ह्रास कहते हैं।
शैथिल्य ह्रास को कम करने के लिए नर्म लोहे का क्रोड प्रयुक्त किया जाता है।