औद्योगीकरण , प्रभावित करने वाले कारक

औद्योगीकरण

औद्योगीकरण –

लगभग दो सौ साल पहले ज़्यादातर लोग खेती का काम करते थे और ज़्यादातर उत्पादन भी खेतों से ही आता था।

लेकिन आज दुनिया के विकसित देशों के ज़्यादातर लोग उद्योगों में तथा उससे जुड़ी सेवाओं में काम करते हैं और बहुत कम लोग खेतों में काम करते हैं।

भारत में भी हालाँकि 60 प्रतिशत से अधिक लोग खेतों में काम करते हैं, इसके बाद भी राष्ट्रीय उत्पादन (जी.डी.पी. या सकल घरेलू उत्पादन) को देखें तो पाएँगे

कि केवल 18 प्रतिशत खेतों से आता है और 26 प्रतिशत उद्योगों व 56 प्रतिशत सेवाओं के क्षेत्र में हो रहा है।

18वीं शताब्दी में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रान्ति शुरू हुई और उसके बाद धीरे-धीरे पूरे विश्व में औद्योगिक उत्पादन के तरीके बदल गए जिसे औद्योगीकरण के नाम से जाना जाने लगा।

इस औद्योगीकरण के बाद से उत्पादन की प्रक्रिया में लगातार बदलाव हो रहा है।

 उद्योगों की स्थापना को प्रभावित करने वाले कारक

आधुनिक उद्योगों की एक विशेषता यह है कि वे अत्यंत अस्थिर हैं और सतत अपनी जगह परिवर्तित करते रहते हैं।

उदाहरण के लिए, जिन क्षेत्रों में औद्योगीकरण शुरू हुआ था

जहाँ सैंकड़ों कारखाने लगे थे और लाखों मज़दूर बसे थे, आज वे वीरान हैं क्योंकि उद्योग वहाँ से पलायन कर गए।

1970 के दशक में भारत के प्रमुख शहरों, जैसे-मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, इन्दौर आदि में विशाल कपड़ा मिलें थीं।

1980 के दशक में ये सब मिलें बंद हो गईं और बिलकुल नए इलाकों में छोटे-छोटे पावर लूम संयत्र स्थापित हुए जो पहले से अधिक मात्रा में कपड़ा उत्पादन करने लगे।

इसी तरह अमेरिका में जिन क्षेत्रों में विशाल मोटरगाडी के उद्योग लगे थे अब वहाँ सारे उद्योग बंद हो गए हैं।

आज यह उद्योग कई छोटी इकाइयों में बँटकर दुनिया के कई देशों में फैला हुआ है।

तो यह निर्णय किस तरह होता है कि कोई उद्योग कहाँ पर लगाया जाएँ?

इसके कई कारक हैं मगर सबसे निर्णायक सरोकार है मुनाफा।

पूँजीपतियों को किसी समय जहाँ कारखाने लगाने से सबसे अधिक मुनाफा की अपेक्षा होगी वहीं वे कारखाने लगाएँगे

और उसी समय तक जब तक किसी दूसरी जगह से अधिक मुनाफा न मिल जाए।

कहाँ कारखाना लगाने से मुनाफा अधिक मिल सकता है, यह कई कारकों पर निर्भर होता है

उत्पादन की तकनीक, कच्चे माल के स्रोत, बाज़ार, यातायात के साधन, राज्य की औद्योगिक व कर नीति और सबसे महत्वपूर्ण कुशल मगर कम वेतन पर काम करने वाले कामगारों की उपलब्धता।

18वीं और 19वीं सदी में यातायात के साधन कम विकसित थे।

अत्यधिक मात्रा में लौह अयस्क और कोयला जैसे कच्चे माल के उपयोग के बाद कम मात्रा में लोहा या इस्पात बनता था

इस कारण खदानों के पास ही लोहा गलाने के उद्योग लगे ताकि कच्चा माल को दूर तक नहीं ले जाना पड़े।

लेकिन समय के साथ इन खदानों में उच्च कोटि का कच्चा माल मिलना बंद होने लगा और दूर-दराज के क्षेत्रों से मँगाना पड़ा।

ऐसे में पुराने इलाकों से लोहा उद्योग हटने लगे और अन्य सुविधाजनक जगहों में लगाए जाने लगे।

जब यातायात और कच्चा माल पहुँचाने के सस्ते साधन बने तो ये उद्योग ऐसी जगह पर लगने लगे जहाँ कुशल मज़दूर मिले और जहाँ कम मज़दूरी पर काम करने के लिए तैयार थे।

उद्योगपतियों ने पाया कि पुराने औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों ने संगठित होकर अपने वेतन और अन्य सुविधाओं को बढ़ा लिया था।

मजदूरों के दबाव के कारण उन देशों में मज़दूरों के हित में कई कानून भी बने थे,

जैसे किसी मज़दूर को बिना मुआवजा काम से नहीं निकाला जा सकता था या मज़दूरों के काम के घण्टे व न्यूनतम वेतन सरकार द्वारा निर्धारित होता था।

अब उद्योगपति उपनिवेश और अन्य देशों में अपना उद्योग लगाने लगे जहाँ गरीबी के कारण लोग कम मज़दूरी पर काम करने के लिए तैयार हो जाते थे,

जहाँ सरकारों ने मज़दूरों के हित में कानून नहीं बनाए थे या उन्हें लागू नहीं कर रहे थे और जहाँ मजदूर संगठित नहीं थे।

यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि आज यातायात और संचार तेज होने के साथ-साथ बहुत सस्ता भी हो गया है।

उदाहरण के लिए दंतेवाड़ा से खोदा गया लौह अयस्क पानी के साथ घोलकर पाइप लाइन के माध्यम से बहाकर 250 किलोमीटर दूर विशाखापट्टनम बंदरगाह तक ले जाया जा सकता है।

वहाँ उसे लौह कंकड़ के रूप में परिवर्तित करके निर्यात किया जाता है। इसे किरन्दुल विशाखापट्टनम स्लरी लाइन कहते हैं।

इसी तरह की एक पाइप लाइन ओडिशा में भी बनी हुई है।

कच्चा माल

सामान्य तौर पर उद्योगों की स्थापना कच्चे माल के स्थानों पर की जाती है जिससे परिवहन लागत कम होती है।

अगर हम 100 रुपए का लोहा और उतने ही कीमत का कपास खरीदेंगे तो कौन-सा अधिक वजनदार होगा आप स्वयं सोच सकते हैं।

लोहा, एल्युमिनियम, बॉक्साइट, चूने का पत्थर आदि भारी अयस्क हैं।

इससे इन उत्पादन क्षेत्रों से दूर औद्योगिक इकाई स्थापित करने पर यातायात का खर्च उत्पादन के मूल्य को अधिक बढ़ा देगा।

इसलिए इस तरह के उद्योगों की स्थापना इनके समीप की जाती है।

कोरबा में एल्युमिनियम का कारखाना, भिलाई में लोहा इस्पात कारखाना और दुर्ग के जामुल में सीमेंट कारखाना खदानों के पास लगाया गया है।

इसके विपरीत कपास का भार बहुत ही कम होने के कारण कपास के परिवहन या उससे बने धागे के परिवहन में होने वाला खर्च अपेक्षतया कम होता है।

इसीलिए सूती वस्त्र उद्योग बाज़ार के समीप लगाया जा सकता है।

परिवहन

अब उत्पादन कई टुकड़ों में हो रहा है।

उत्पाद के कई हिस्से या कलपुर्जे आसपास के कारखानों या विभिन्न देशों के छोटे कारखानों में तैयार होकर आते हैं

और किसी एक देश में इन्हें जोड़कर पूरा किया जाता है और कंपनी द्वारा बाजार में बेच दिया जाता है।

इसके लिए परिवहन की जरूरत पड़ती है।

कच्चे माल या इनपुट को उद्योग तक लाने एवं तैयार माल को बाज़ार तक पहुँचाने का कार्य परिवहन की सहायता से ही संभव होता है।

इस कारण उद्योगों के स्थान निर्धारण में परिवहन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

परिवहन के रूप में जल, सडक, रेल और हवाई यातायात के साधनों का उपयोग किया जाता है

और इनके माध्यम से कच्चे माल को उद्योग तक लाने और उत्पादित वस्तुओं को बाज़ार तक ले जाने का काम किया जाता है।

शक्ति या ऊर्जा

किसी भी उद्योग में मशीनों को चलाने के लिए विद्युत शक्ति की आवश्यकता होती है।

ये शक्ति ताप बिजली (कोयले से), जल विद्युत (बाँधों से), पवन बिजली, सौर ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा आदि से प्राप्त होती है।

कोयला वज़न में काफी भारी होता है।

साथ ही कोयले से बनने वाले बिजली गृह के आसपास के क्षेत्रों में कोयले से निकलने वाली राख (ऐश) से काफी प्रदूषण होता है।

कोयले का विकल्प है डीज़ल।

लेकिन ये दोनों. पर्यावरण की दृष्टि से प्रदूषणकारी हैं और जैसा कि आप जानते हैं ये प्रकृति में सीमित मात्रा में ही उपलब्ध हैं और समय के साथ इनके खत्म हो जाने का डर है।

इसलिए आजकल पर्यावरणीय दृष्टिकोण से ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत भी तलाशे जाने लगे हैं, जैसे सौर ऊर्जा, पन बिजली, वायु ऊर्जा, कचरे से बिजली बनाना आदि।

इनमें से सबसे किफायती बिजली बाँधों से बनने वाली जल विद्युत ऊर्जा, लेकिन बड़े बाँधों से बहुमूल्य वन और खेतिहर ज़मीन डूब जाती है और कई गाँव उजड़ जाते हैं।

छोटे और मध्यम बाँध और पहाड़ी ढलानों पर बने बिजली संयंत्र इसके उचित विकल्प हो सकते हैं।

जिन राज्यों व देश में विद्युत सतत व सस्ती मिलती है वहाँ औद्योगीकरण की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।

यहाँ सतत का तात्पर्य किसी भी कारखाने में मशीन चलाने के लिए विद्युत 24 घंटे निर्बाध रूप से मिलते रहने से है।

बाज़ार

किसी भी वस्तु के उत्पादन के बाद उसकी बाज़ार में खपत होती है।

अतः सभी उत्पादों को बाजार तक ले जाना होता है।

साथ ही लगातार बदलते हुए बाज़ार के स्वरूप भी उद्योग को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

बाज़ार से तात्पर्य केवल परिवहन खर्च कम करने से ही नहीं है,

बल्कि बाज़ार में नए-नए उत्पादों की खपत के साथ-साथ लोगों का उत्पादों के प्रति रुझान बनाए रखने के लिए वस्तुओं का आकर्षक होना एवं गुणवत्ता महत्वपूर्ण हो गई है

साथ ही मानक बाज़ार की भी जरूरत होती है जिससे दुनिया भर में ज़्यादा-से-ज्यादा लोग एक तरह के उत्पाद की माँग करें अर्थात् लोगों की सोच, रुचि व खपत में समरूपता हो।

पिछले 25 सालों के दौरान मोबाइल के उदाहरण से उसे समझा जा सकता है

कि शुरुआती दौर में 1990-91 में, बहुत ही कम कंपनियों मोबाइल बनाती थीं तथा मोबाइल भी कम लोगो के पास होता था क्योंकि लोगों की पहुँच कम थी।

आज बहुतेरी कंपनियों मोबाइल बनाती हैं।

बाजारों की प्रतिस्पर्द्धा में अपने आपको बनाए रखने के लिए कंपानियाँ अपने नए फीचर के साथ अलग-अलग आकार, डिजाइन, सस्ते मूल्य पर मोबाइल को बाज़ार में लाती हैं

जिससे वे ग्राहकों का आकर्षण अपनी ओर कर सकें तथा बाज़ार में अपने को पुनः स्थापित कर सकें।

श्रम

उद्योगों में काम करने के लिए कुशल और प्रशिक्षित मज़दूरों की आवश्यकता होती है साथ ही कुछ

ई-कॉमर्स

आप पहले कभी सिर्फ कल्पना करते रहे होंगे कि काश अपने घर बैठे मेरे पास मोबाइल, घड़ी, कपड़े, किताब, खिलौना, घरेलू सामान आ जाए?

अब यह कल्पना नहीं वास्तविकता है।

आप अपने मोबाइल या कम्प्यूटर के माध्यम से ऑर्डर करें, अपने ए.टी.एम. से भुगतान (पेमेंट) करें या अपना सामान आने के बाद पेमेंट कीजिएगा कुछ ही दिन में आपका सामान आपके हाथ में होगा,

यही है ई-कॉमर्स।

भारत में इंटरनेट और मोबाइल यूजर्स की बढ़ती संख्या ई-कॉमर्स के बढ़ने की वजह है।

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का ई-कॉमर्स बाज़ार सालाना 50 फीसदी की दर से बढ़ रहा है।

वहीं चीन का ई-कॉमर्स बाज़ार 18 फीसदी और जापान का 11 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है।

देश में ऑनलाइन खरीददारी करने वाले लोगों में 75% की उम्र 15 से 34 वर्ष की है।

कुशल मैनेजर, वैज्ञानिक, कम्प्यूटर प्रोग्रामर आदि की जरूरत होती है।

औद्योगीकरण की यह भी ज़रूरत है कि कुछ लोग लीक से हटकर सोचें, नई-नई चीज़ों की खोज करें,

समस्याओं के नए हल खोजते रहें अर्थात् लोग सृजनशील और भीड़ से हटकर सोचने वाले बनें।

विकासशील देशों में मजदूरों की समस्या बहुत भिन्न रूप में है।

सघन जनसंख्या वाले देशों में बेकारी की समस्या गंभीर है।

अतः वे सस्ते में काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन उनमें कुशलता की कमी होती है।

वे अधिकांशतः अशिक्षित होते हैं और आधुनिक उद्योगों की ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं होते।

देश के कई कारीगरों को कुशलता हासिल करने के लिए विदेशों में ट्रेनिंग के लिए भेजना पड़ा है।

रोज़गार के मामले में महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि कंपनियों ने अब स्थाई मजदूर व कर्मचारी रखना कम कर दिए हैं

और वे अस्थाई या ठेके पर मजदूर रखने लगी हैं या काम का आउटसोर्सिंग करने लगी हैं।

इससे कंपनी की श्रम लागतों में काफी बचत हो रही है।

यह परिस्थिति यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों की परिस्थितियों से बहुत भिन्न है।

पूँजी

औद्योगीकरण के लिए सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरत है पूँजी की।

पूँजी उपलब्ध कराने के लिए कई संस्थाओं का स्थापित होना आवश्यक है जैसे शेयर बाजार, बैंक और बीमा कंपनियाँ।

इनके होने से किसी भी उद्योगपति को कारखाने लगाने के लिए जरूरी पूँजी उपलब्ध होती है।

लोग अपना धन खाली और अनुपयोगी न रखें और उसे लाभ कमाने के लिए निवेश करें इसके लिए बैंक जैसी संस्थाएँ ज़रूरी हैं।

उद्योगों में व्यक्तिगत पूँजी केवल व्यापारिक तथा लाभ की दृष्टि से लगाई जाती है

और इस प्रकार की पूँजी से उन्हीं स्थानों पर उद्योग स्थापित होते हैं, जहाँ लाभ की संभावना लगभग निश्चित हो।

जैसे मुंबई के कपड़ा उद्योगों में व्यक्तिगत पूँजी का आकर्षण इसी दृष्टिकोण से हुआ था।

विदेशी व्यक्तिगत पूँजी भी इसी लक्ष्य से उद्योगों में लगाई जाती है।

इसके विपरीत सरकारी पूँजी निवेश केवल आर्थिक लाभ को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है।

पिछड़े हुए प्रदेशों के विकास तथा प्राकृतिक संपत्ति के उपयोग, संतुलित विकास को ध्यान में रखकर सरकारी पूँजी निवेश किया जाता है।

भिलाई इस्पात संयंत्र इसका एक उदाहरण है।

अगर बैंक नहीं होते तो पूँजी किस तरह उपलब्ध हो पाती?

प्रौद्योगिकी

प्रौद्योगिकी जितनी आधुनिक होगी उतना ही सहज एवं निम्न लागत पर ज्यादा उत्पादन संभव हो सकेगा।

विकसित देशों के पास आधुनिक प्रौद्योगिकी होने के कारण वहाँ औद्योगीकरण अधिक संभव हुआ है

जबकि विकासशील देशों में प्रौद्योगिकी के कम विकास से उद्योगों का कम विकास हुआ।

इसके लिए नए-नए अनुसंधान, नई तकनीकी का विकास आवश्यक है जिससे ज्यादा उत्पादन हो सके।

जरा सोचें कि उच्च गुणवत्ता के लौह अयस्क से तो उच्च गुणवत्तायुक्त लोहा इस्पात का निर्माण किया जा सकता है,

लेकिन कम गुणवत्ता वाले लौह अयस्क से उच्च गुणवत्ता के लौह इस्पात का उत्पादन किस प्रकार संभव होगा, यह नए अनुसंधान के द्वारा ही संभव हो सकता है।

नई-नई स्वचालित मशीनों के उपयोग से सर्वाधिक व गुणवत्तायुक्त उत्पादन हेतु प्रौद्योगिकी विकास व उसकी संभावनाओं को तलाशना महत्वपूर्ण हो गया है।

दुनिया के अन्य देशों के बारे में सूचना के माध्यम से पता करना औद्योगिकीकरण में मददगार साबित होता है।

आज कंपनियों में काफी प्रतिस्पर्द्धा है इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि अत्यधिक व गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए आधुनिक व नई तकनीक का उपयोग करें।

इसके लिए कई कंपनियाँ नई तकनीक वाली कंपनियों के साथ मिलकर उत्पादन का काम करती हैं।

उदाहरण के लिए, भारत की हीरो कंपनी ने जापान की कंपनी होंडा के साथ मिलकर हीरो होंडा मोटर साइकिल का उत्पादन शुरू किया। औद्योगीकरण

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